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  • 08 Aug 2019 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्य

    एक नाटककार के रूप में सुरेन्द्र वर्मा का मूल्यांकन कीजिये।

    सुरेन्द्र वर्मा मोहन राकेश की नाट्य-परंपरा के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण नाटककार हैं। सुरेन्द्र वर्मा ने द्रौपदी, सूर्य की अंतिम किरण से सूर्य की पहली किरण तक, आठवाँ सर्ग, शकुंतला की अंगूठी, कैद-ए-हयात, रति का कंगन जैसे बहुचर्चित नाटकों की रचना कर समकालीन जीवन के कई महत्त्वपूर्ण प्रश्नों को रंगमंचीय दृष्टि से अनुकूल संरचना में उठाया है।

    सुरेन्द्र वर्मा ने भी मोहन राकेश की तरह ही अपने अधिकांश नाटकों में मिथकीय धरातल पर आधुनिक जीवन-स्थितियों पर विमर्श उपस्थित किया है। स्त्री-पुरुष संबंध, कला-सत्ता संबंध, आधुनिक जीवन के तनाव और तल्खी मोहन राकेश के नाटकों के भी मुख्य विषय हैं और सुरेन्द्र वर्मा के भी। इन सबके के चित्रण में मोहन राकेश के नाटकों की तरह ही समस्या की बारीकी और भाषिक संरचना का विकसित रूप सुरेन्द्र वर्मा के नाटकों में भी दिखायी देता है।

    मोहन राकेश की तरह की नाट्यार्थ को विकसित करने वाले तथा अभिनेयता को सशक्त बनाने वाले कई नाट्य प्रयोग सुरेन्द्र वर्मा ने भी किए हैं और इन प्रयोगों को आगे ले जाते हुए कई नए नाट्य-प्रयोग भी किए हैं। ‘आधे-अधूरे’ में एक ही अभिनेता से पाँच पात्रों की भूमिका करवाने की मोहन राकेश की रंग-युक्ति को सुरेन्द्र वर्मा ने अपने नाटक ‘द्रौपदी’ में अपनाया है और मुखौटों का प्रयोग करते हुए एक ही अभिनेता से पाँच पात्रों की भूमिका करवाने का नाट्य-निर्देश दिया है।

    पात्रों में तनाव, द्वंद्व एवं संघर्ष की स्थितियों का निर्माण, रंग-परिकल्पना में पाश्चात्य एवं भारतीय रंग-पद्धतियों का समन्वय, रंगमंचीय आवश्यकतानुसार रंग-निर्देश, नाट्यार्थ को प्रकाशित करने वाली तथा अभिनयानुकूल प्रकाश-योजना, संवादों में निहित अर्थ को अधिक व्यंजक एवं घनीभूत बनाने वाली ध्वनि-व्यवस्था, सशक्त दृश्यबंध-योजना, सूत्रधार का रचनात्मक उपयोग, मौन, विराम, अंतराल, स्मृत्यावलोकन से युक्त भाषा, विडंबना एवं विसंगति को उभारने में सक्षम चुस्त संवाद आदि वे अन्य विशेषताएँ हैं जो सुरेन्द्र वर्मा के नाट्यकर्म को मोहन राकेश की परम्परा से सशक्त स्तर पर जोड़ती भी हैं और विशिष्ट भी बनाती हैं। इस दृष्टि से सुरेन्द्र वर्मा हिन्दी के अन्य नाटककारों से आगे खड़े दिखायी देते हैं।

    अत: यह निस्संदेह कहा जा सकता है कि मोहन राकेश ने हिन्दी नाटक को जो नई दिशा दी थी, उस ओर अग्रसर होने वाले सबसे सशक्त नाटककार सुरेन्द्र वर्मा हैं।

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