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  • 06 Aug 2019 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्य

    हिन्दी कहानी में से अभिव्यक्त दलित-जीवन पर प्रकाश डालिये।

    हिन्दी कहानी में दलित जीवन-चित्रण को दो भागों में बाँटकर देखना उचित है। एक तो हिन्दी कहानी की सामान्य विकास-परंपरा में दलित जीवन को अभिव्यक्त करने वाली कहानियों के परिप्रेक्ष्य में और दूसरे, साहित्य में दलित-विमर्श के उभार के बाद दलित साहित्यकारों द्वारा रचित कहानियों में अभिव्यक्त दलित-जीवन के परिप्रेक्ष्य में। ध्यातव्य है कि दलित साहित्यकार दलितों द्वारा सृजित साहित्य को ही वास्तविक दलित साहित्य मानते हैं, क्योंकि उनके अनुसार ‘स्वयंवेदना’ पर आधारित साहित्य ही यथार्थ साहित्य होता है।

    कहानी की सामान्य विकास-परंपरा में सर्वप्रथम प्रेमचंद की कहानियों में दलित जीवन की व्यापक अभिव्यक्ति दिखाई देती है। उनके उपरान्त निराला, राहुल सांकृत्यायन, यशपाल आदि स्वतंत्रतापूर्व कहानीकारों तथा मार्कण्डेय, अमरकांत, शिवप्रसाद सिंह, राजेन्द्र यादव, उदयप्रकाश आदि स्वातंत्र्योत्तर कहानीकारों की कहानियों में दलित-जीवन की अभिव्यक्ति हुई है।

    प्रेमचंद पहले कहानीकार हैं जो भारतीय समाज-व्यवस्था में अत्यंत दयनीय जीवन जीते दलितों या शूद्रों को अपनी कहानियों का विषय बनाते हैं और उनकी यातनाओं एवं जीवन-संघर्ष का संपूर्णता में अंकन करते हैं। विशेषकर प्रेमचंद की परवर्ती यथार्थवादी कहानियाँ ‘मंत्र’, ‘ठाकुर का कुआँ’, ‘सद्गति’, ‘दूध का दाम’, ‘मुक्तिमार्ग’, ‘कफन’ आदि दलित-चेतना की दृष्टि से हिन्दी कहानी को महत्त्वपूर्ण देन हैं। प्रेमचंद इन कहानियों में दलितों के शोषण को गहरी संवेदना के साथ रेखांकित करते हैं तथा ब्राह्मणवाद पर चोट करते हैं। लेकिन उनकी इन कहानियों के दलित पात्र संघर्ष करते हुए नज़र नहीं आते।

    गैर दलित कहानीकारों द्वारा लिखी गई दलित संवेदना की स्वातंत्र्योत्तर कहानियों में मार्कण्डेय की ‘हलयोग’, उदयप्रकाश की ‘टेपचू’, मुद्राराक्षस की ‘फरार मल्लावा राजा से बदला लेगी’, रमणिका गुप्ता की ‘बहू-जुठाई’, राजेन्द्र यादव की ‘दो दिवंगत’ आदि उल्लेखनीय हैं। हालाँकि स्वतंत्रतापूर्व यशपाल एवं राहुल सांकृत्यायन की कहानियों के दलित पात्रों में विद्रोही चेतना दिखाई देने लगी थी, लेकिन स्वातंत्र्योत्तर उपर्युक्त कहानियों में दलित पात्रों की विद्रोह एवं संघर्ष चेतना अधिक मुखर रूप में दिखाई देती है।

    दलित रचनाकरों द्वारा लिखे गए कहानी-साहित्य के केन्द्र में मूलत: अम्बेडकरवादी विचारधारा है। डॉ. अम्बेडकर के अनुसार दलित समाज की सबसे बड़ी ज़रूरत है- उन्हें उनके खोए हुए स्वाभिमान एवं आत्मसम्मान का बोध कराना। इन्हीं उद्देश्यों से प्रेरित होकर अधिकतर दलित कहानीकारों ने शोषण के प्रति विद्रोही स्वर अपनाया है।

    मोहनदास नैमिशराय, ओमप्रकाश वाल्मीकि, जयप्रकाश कर्दम, प्रहलाद चन्द्र दास, दयानंद बटोही, रतन कुमार साँभरिया, जिया लाल आर्य, सूरजपाल चौहान, श्यौराज सिंह बेचैन आदि प्रमुख दलित कहानीकार हैं। मोहनदास नैमिशराय शोषण से बचने के लिये संगठन पर बल देते हैं। उनकी कहानी ‘अपना गाँव’ में उनकी यह सोच स्पष्ट रूप से उभरी है। ओमप्रकाश वाल्मीकि के चर्चित कहानी संग्रह ‘सलाम’ की कहानियों में दलितों का जीवन-संघर्ष, व्यथा और व्यवस्था के प्रति विद्रोह का स्वर अभिव्यक्त हुआ है। समग्र रूप में हम कह सकते हैं कि हिन्दी की दलित कहानियाँ सामाजिक जीवन की विसंगतियों एवं विद्रूपताओं का चित्रण करते हुए सामाजिक अन्याय से मुक्ति के लिये संघर्ष एवं विद्रोह की चेतना का प्रणयन करती हैं और प्रकारान्तर से समतामूलक समाज की स्थापना का रचनात्मक प्रयत्न करती हैं।

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