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  • 03 Aug 2019 सामान्य अध्ययन पेपर 3 पर्यावरण

    हाल के दिनों में जलवायु परिवर्तन ने फसल प्रतिरूप को किस प्रकार से प्रभावित किया है? जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में जलवायु अनुकूल फसलों की क्षमता और चुनौतियों का वर्णन कीजिये। (250 शब्द)

    उत्तर

    हल करने का दृष्टिकोण :

    • जलवायु परिवर्तन के प्रति भारत की सुभेद्यता के बारे में संक्षेप में बताइये।

    • फसल प्रतिरूप पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की चर्चा कीजिये।

    • जलवायु अनुकूल फसलों की क्षमता और चुनौतियों का उल्लेख कीजिये।

    • निष्कर्ष लिखिये।

    परिचय

    • भारत अपनी विविध कृषि-जलवायु विशेषताओं के कारण सर्वाधिक सुभेद्य देशों में से एक है। भारतीय कृषि पारिस्थितिकी-तंत्र मानसून पर अत्यधिक निर्भर है तथा 85% लघु और सीमांत कृषि-जोत मौसम संबंधी अनियमितताओं के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं।
    • आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 के अनुमान के मुताबिक, बिना किसी नीति के हस्तक्षेप के जलवायु परिवर्तन औसतन कृषि आय को 15-18% तक कम कर सकता है, जबकि असिंचित क्षेत्रों में यह 20-25% तक हो सकता है।

    फसल प्रतिरूप पर जलवायु परिवर्तन का प्रभाव

    • जलवायु परिवर्तन के कारण उच्च तापमान और बदलते वर्षण प्रतिरूप विभिन्न फसलों के उत्पादन प्रतिरूप को गंभीर रूप से प्रभावित करेंगे।
    • भारत का अनाज उत्पादन जलवायु परिवर्तन के प्रति सुभेद्य है। इसकी वज़ह से गेहूँ, चावल, तिलहन, दालें, फल और सब्जियों जैसी प्रमुख फसलों में बीते वर्षों में उत्पादन में कमी देखने को मिली है ।
    • अध्ययनों में पाया गया है कि बाजरा, ज्वार (चारा) और मक्का जैसे अनाजों का उत्पादन चरम मौसमी दशाओं के प्रति अधिक अनुकूल होता है। जलवायु में साल-दर-साल परिवर्तन के कारण इस प्रकार की फसलों के उत्पादन में कोई खास परिवर्तन नहीं होता और आमतौर पर सूखे के दौरान थोड़ी गिरावट आती है। हालाँकि भारत की प्रमुख फसल-चावल के उत्पादन में चरम मौसमी दशाओं के दौरान बड़ी गिरावट आती है।
    • यद्यपि अधिकांश फसलों के उत्पादन में कमी आती है,लेकिन जलवायु परिवर्तन से सोयाबीन, चना, मूँगफली, नारियल (पश्चिमी तट) और आलू (पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में) जैसी फसलों की उपज में सुधार करने में मदद मिल सकती है।

    जलवायु अनुकूल फसलों की क्षमता

    • जलवायु अनुकूल फसलें चरम मौसमी दशाओं के प्रति अनुकूलन के माध्यम से जलवायु परिवर्तन के खतरों को कम करने में मददगार साबित होंगी।
    • निम्नलिखित शस्य-विज्ञान प्रबंधन प्रथाओं के माध्यम से जलवायु जोखिम को कम किया जा सकता है:
      • अंतर एवं बहुफसली कृषि पद्धति और फसल-चक्रण
      • गैर-कृषि गतिविधियों की ओर स्थानांतरण
      • बीमा कवर
      • सौर पंप, ड्रिप सिंचाई और स्प्रिंकलर जैसी उन्नत तकनीकों को बढ़ावा।
    • ये कीट-प्रतिरोधी होने की वज़ह से कीट-हमलों से फसल की उपज को होने वाले नुकसान से बचाती हैं।
    • जलवायु अनुकूल फसलें कृषि-आगतों (उर्वरक और पानी के उपयोग) की उत्पादकता और दक्षता में वृद्धि करती हैं, और यहाँ तक कि कार्बन उत्सर्जन का शमन भी करती हैं।

    जलवायु अनुकूल फसलों को अपनाने में चुनौतियाँ

    • पारंपरिक तरीकों से की जाने वाली जीवन-निर्वाहन कृषि भारतीय किसानों के बीच नए जलवायु-स्मार्ट कृषि तौर-तरीकों को अपनाने की गति को कम कर देती हैं।
    • फसल प्रतिरूप को तत्काल परिवर्तित करने के लिये कृषि वैज्ञानिकों, नीति निर्माताओं और किसानों के बीच ज्ञान-अंतराल बहुत व्यापक है।
    • फसल विविधीकरण के लिये किसानों को निर्देशित करने और उनका मार्गदर्शन करने हेतु समयानुकूल संस्थागत पहल का अभाव।
    • किसानों को जलवायु अनुकूल फसलों को अपनाने हेतु प्रेरित करने में अनुसंधान और शैक्षणिक हस्तक्षेप का अभाव।

    निष्कर्ष:

    • भारत में वैकल्पिक अनाज के उत्पादन को बढ़ावा देने से पोषण सुधार, पानी की बचत और कृषि के लिये ऊर्जा की माँग में कमी तथा इससे होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी जैसे लाभ प्राप्त हो सकते हैं।
    • जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी समिति (IPCC) द्वारा "1.5 डिग्री सेल्सियस पर वैश्विक तापन" नामक अपनी छठी मूल्यांकन रिपोर्ट में विशेष रूप से मौजूदा प्रतिक्रियात्मक क्षमताओं को मज़बूत करने और उन्हें बढ़ाने की आवश्यकता तथा पेरिस समझौते के उद्देश्यों के प्रति प्रतिबद्धता पर ज़ोर दिया गया है।
    • जलवायु परिवर्तन और उसके जोखिम-निवारण के लिये किसानों को शिक्षित करने तथा कृषि विज्ञान केंद्रों और अन्य प्रमुख संगठनों को अलग से अधिकतम फंड प्रदान करने की तत्काल आवश्यकता है।
    • विभिन्न स्तरों पर जलवायु परिवर्तन के असंख्य प्रभावों को देखते हुए इससे निपटने के लिये एक अधिक व्यापक रणनीति विकसित करने की आवश्यकता है।
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