‘स्कंदगुप्त’ नाटक की चरित्र-योजना की समीक्षा कीजिये।
02 Aug 2019 | रिवीज़न टेस्ट्स | हिंदी साहित्यस्कंदगुप्त 1928 ई. का नाटक है, जो प्रसाद के नाट्य-लेखन का लगभग अंतिम दौर है। प्रसाद को नाटकों की जो परंपरा विरासत में मिली थी, उसमें रस को साध्य माना जाता था और चरित्र को साधन। उन्हें भारत में चरित्र-प्रधान नाटकों की परंपरा नहीं मिली थी। वे पश्चिम की अरस्तवी परंपरा, पारसी रंगमंच शैली तथा लोकनाट्य शैली इत्यादि से भी परिचित थे। किंतु, इनमें से कोई भी परंपरा चरित्र-प्रधान नाटकों पर आधारित नहीं थी। इसी दौर में प्रसाद स्वच्छंदतावादी परंपरा के नाटकों से परिचित हुए और चरित्रों की प्रधानता और स्वाभाविकता ने उन्हें प्रभावित किया। उनके नाटकों का अंतिम दौर ‘उद्देश्य-प्रधान’ नाटकों से ‘चरित्र-प्रधान’ नाटकों की ओर संक्रमण का दौर है। यह संक्रमण उनके अंतिम नाटक ‘ध्रुवस्वामिनी’ (1934) में पूर्णता के बिन्दु पर पहुँचा क्योेंकि ध्रुवस्वामिनी सही अर्थों में हिन्दी के चरित्र-प्रधान नाटकों की परंपरा का प्रस्थान बिंदु है। स्कंदगुप्त पूर्णत: चरित्र-प्रधान नाटक तो नहीं है किंतु उसमें चरित्रों को स्वतंत्र महत्त्व देने की कोशिश ज़रूर दिखाई पड़ती है।
स्कंदगुप्त के चरित्र सामान्यत: वर्गगत हैं अर्थात् ‘अच्छाई’ या ‘बुराई’ के प्रतीक हैं। यह विशेषता भारतीय तथा अरस्तवी दोनों परंपराओं में दिखती है। स्कंदगुप्त के चरित्र तीन वर्गों में विभाजित किये जा सकते हैं- अच्छे, बुरे तथा अच्छाई-बुराई के मिश्रण। अच्छे वर्ग के चरित्र देवता सरीखे हैं जिनमें नैतिक कमियाँ अनुपस्थित हैं, जैसे-‘पर्णदत्त’, ‘चक्रपालित’, ‘बंधुवर्म्मा’, ‘भीमवर्म्मा’, ‘कमला’, ‘देवसेना’, ‘रामा’ इत्यादि। बुरे वर्ग के चरित्र दानवीय प्रवृत्तियों से युक्त हैं जो निरंतर अनैतिक कर्म करते हैं, जैसे- ‘प्रपंचबुद्धि’, ‘विजया’ इत्यादि। तीसरे वर्ग में वे चरित्र हैं जिनमें अच्छाई और बुराई साथ-साथ विद्यमान हैं। किसी में अच्छाई का अनुपात अधिक है तो किसी में बुराई का। ऐसे चरित्र आम तौर पर अंत में बुराई से अच्छाई की ओर बढ़ते हुए दिखाए गए हैं। उदाहरण के लिये- ‘भटार्क’, ‘शर्वनाग’, ‘पुरगुप्त’, ‘अनंतदेवी’ इत्यादि।
स्वच्छंदतावादी नाटककार होने के कारण प्रसाद चरित्रों की सहजता को उभारना चाहते हैं, किसी ‘आदर्श’ या ‘उद्देश्य’ की वजह से उन्हें एक-आयामी, यांत्रिक तथा निर्जीव नहीं बनाना चाहते। इस दृष्टि से स्कंदगुप्त का चरित्र विशेष रूप से उल्लेखनीय है। वह देश को बचाना चाहता है किन्तु देवसेना का आकर्षण उसमें विचलन पैदा करता है। इसी प्रकार, वह राज्य के दायित्वों को निभाना चाहता है किंतु उसके वास्तविक मन को ‘बौद्धों के निर्वाण, योगियों की समाधि और पागलों की सी संपूर्ण विस्मृति’ की तलाश है। देवसेना के भीतर भी ऐसा ही अंतर्द्वंद्व है।
संक्षेप में, प्रसाद की चरित्र योजना की मूल कमियाँ निम्नलिखित हैं-
(क) नाटक के आकार की दृष्टि से चरित्रों की संख्या अधिक है। इसमें कुल 33 चरित्र हैं। इन सभी को याद रख पाना पाठक के लिये कठिन होता है। इसलिये कथा के साथ कहीं-कहीं तादात्म्य टूट जाता है।
(ख) चरित्रों के पर्याप्त विकास के लिये आवश्यक होता है कि ऐसी विभिन्न परिस्थितियाँ उपलब्ध कराई जाएँ जिनमें उनके विभिन्न पक्ष उभर सकें। यदि एक दो प्रमुख चरित्रों को छोड़ दें तो बाकी चरित्रों के लिये पर्याप्त स्थितियाँ नहीं जुटाई जा सकी हैं।
(ग) कुछ चरित्रों, विशेषत: अधिकांश नारी चरित्रों के संदर्भ में प्रसाद का उद्देश्य हावी हो गया है। उदाहरण के लिये, विजया नाटक में सिर्प इसलिये है ताकि उसके ‘कंट्रास्ट’ के माध्यम से देवसेना की महानता को उभारा जा सके।
कुल मिलाकर, स्कंदगुप्त की चरित्र योजना ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। उद्देश्य-प्रधान मानसिकता को छोड़ते हुए चरित्र-प्रधान नाट्य लेखन की ओर बढ़ने की प्रक्रिया हिन्दी नाटक के इतिहास में प्रसाद ने ही पूरी की और स्कंदगुप्त इसी प्रयोगशीलता की अभिव्यक्ति है। इस दृष्टि से जो परिवर्तन प्रेमचंद ने उपन्यासों की धारा में किया, वही परिवर्तन नाटकों की परंपरा में करने का श्रेय जयशंकर प्रसाद को मिलता है।