निम्नलिखित पद्यांश की लगभग 150 शब्दों में ससंदर्भ व्याख्या कीजिये:
उर में माखनचोर गड़े।
अब कैसेहू निकसत नहिं, ऊधो तिरछे ह्वै जो अड़े।।
जदपि अहीर जसोदानंदन तदपि न जात छँड़े।
वहाँ बने जदुबंस महाकुल हमहिं न लगत बड़े।।
को बसुदेव, देवकी है को, ना जानैं औ बूझै।
सूर स्यामसुन्दर बिनु देखे और न कोऊ सूझै।।
01 Aug 2019 | रिवीज़न टेस्ट्स | हिंदी साहित्यसंदर्भ एवं प्रसंग: प्रस्तुत पद भक्तिकालीन कृष्णभक्ति काव्यधारा के प्रतिनिधि कवि सूरदास के पदों के संग्रह भ्रमरगीत सार (संपादक- आचार्य रामचंद्र शुक्ल) से लिया गया है। इस पद में गोपियाँ उद्धव से श्रीकृष्ण के प्रति अपने प्रेम करने की विवशता के कारणों को बता रही है।
व्याख्या: हमारे हृदय में माखनचोर श्रीकृष्ण ऐसे गड़ चुके हैं कि किसी प्रकार से निकल ही नहीं पा रहे हैं। यद्यपि वे जाति से अहीर अर्थात् ग्वाले हैं तो भी हमें प्रिय हैं। मथुरा जाकर वे भले ही यदुवंश के प्रतापी राजा बन गए हों, पर इसमें उनका बड़ापन नहीं लगता है। हमें यह नहीं पता कि वसुदेव कौन है, देवकी कौन है। सूरदास के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हे उद्धव, हमें श्यामसुंदर के रूप को देखे बिना अन्य कुछ भी दिखाई नहीं देता अर्थात् हमें उनके बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता है।
विशेष
1. इन पंक्तियों में गोपियाँ इस बात को व्यंजित कर रही हैं कि प्रेम पूर्णत: भावना का विषय है जो स्वत: उत्पन्न हो जाता है; वह सोच-विचार कर नहीं किया जाता; वहाँ जाति, कुल, वंश, सामाजिक स्थिति आदि नहीं देखे जाते।
2. इन पंक्तियों में गोपियों की अखंड एवं अनन्य प्रेमनिष्ठा की अभिव्यक्ति हुई है।
3. वचन की भाव-प्रेरित वक्रता इन पंक्तियों में दिखाई दे रही है।
4. ‘तिरछे हो कर अड़ना’ कृष्ण की त्रिभंगी मुद्रा को संकेतित कर रहा है।
5. ब्रजभाषा का लचीलापन, मार्धुय और व्यंजकता इन पंक्तियों में देखी जा सकती है।