गोस्वामी तुलसीदास के काव्य की प्रासंगिकता पर विचार कीजिये।
31 Jul 2019 | रिवीज़न टेस्ट्स | हिंदी साहित्यतुलसीदास भक्तिकाल के प्रतिष्ठित कवियों में से एक हैं। उनका काव्य और उनका दृष्टिकोण आज भी उतना ही लोकप्रिय व प्रासंगिक हैं जितना तत्कालीन समय में था।
तुलसी की प्रासंगिकता का एक मुख्य कारण उन समस्याओं की निरंतरता है, जो तुलसी के ‘कलियुग’ (तत्कालीन समय) में विद्यमान थी और आज भी प्रासंगिक है। तुलसी अपने समाज की जिन सामाजिक विसंगतियों, कपट व मिथ्या आचरण से चिंतित थे- ‘‘निराचार जो श्रुतिपथत्यागी, कलियुग सोई ग्यानी सो विरागी’’, वैसी ही समस्यायें आज और विकट रूप में नैतिक मूल्यों में गिरावट, बढ़ते अपराधीकरण और भ्रष्टाचार आदि रूपों में दिखायी पड़ती हैं।
गरीबी और बेरोजगारी जिन्हें तुलसीदास ने अपनी कविताओं का केंद्र बिंदु बनाया- ‘‘नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं’’, आज भी पूरे विश्व के समक्ष एक प्रमुख चुनौती के रूप में विद्यमान है। तुलसी के समय सत्ता सेवा की वस्तु न होकर भोग की वस्तु थी। आज के राजनीतिक परिदृश्य में भी अवसरवादी राजनीति के रूप में यह समस्या फल-पूल रही है।
समस्याओं की निरंतरता के साथ-साथ तुलसी की प्रासंगिकता, उनके दृष्टिकोण की मौलिकता के कारण भी अधिक है। उन्होंने तत्कालीन समाज की समस्याओं के निराकरण के लिये जिस ‘रामराज्य’ की कल्पना की थी, वैसे आदर्श राज्य की आवश्यकता आज के परिदृश्य में भी विद्यमान है।
तुलसी ने ‘रामराज्य’ का पहला लक्षण लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति बताया-
‘‘राम राज राजत सकल, धरम निरत नर नारि
राग न रोष न दोष दुख, सुलभ पदारथ चारि।’’
आज एक लोक कल्याणकारी राज्य का मुख्य उद्देश्य भी लोगों को आधारभूत सुविधायें (भोजन, आवास व जल) उपलब्ध कराना है। तुलसी ने अपने आदर्श राज्य में एक ऐसे समाज की कल्पना की है, जहाँ सभी का स्वास्थ्य उत्तम होगा, कोई गरीब व दुखी नहीं होगा व सभी साक्षर होंगे-
‘‘अल्प मृत्यु नहिं कवनिऊ पीरा, सब सुंदर सब विरुज सरीरा;
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना, नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।’’
आज मानव विकास सूचकांक के मुख्य मानक भी यही हैं जिनकी कल्पना तुलसीदास ने मध्य काल में की थी।
तुलसी का मानना था कि राजा को जनता के प्रति प्रतिबद्ध होना चाहिये- ‘‘जासु राज प्रिय प्रजा, दुखारी, सो नृप अवस नरक अधिकारी’’। आज ‘अच्छे अभिशासन’ का मुख्य तत्व यही ‘प्रतिबद्धता’ (जवाबदेही व उत्तरदायित्व) ही है।
इस प्रकार तुलसी के विचार व समाज दर्शन देश व काल की सीमाओं से परे हैं और आज भी उतने ही अनुकरणीय हैं जितने मध्यकाल के सामंतवादी युग में थे।