भारत में लौह और इस्पात उद्योगों की अवस्थिति को कौन से कारक प्रभावित करते हैं? 19 वीं शताब्दी के प्रारंभ से भारत में लौह और इस्पात उद्योगों की अवस्थिति में हुए परिवर्तन का उल्लेख कीजिये। (250 शब्द)
दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर
हल करने का दृष्टिकोण:
• भारत में लौह और इस्पात उद्योगों का संक्षिप्त परिचय दीजिये।
• भारत में लौह और इस्पात उद्योगों की अवस्थिति को प्रभावित करने वाले कारकों का उल्लेख कीजिये।
• 19वीं सदी के प्रारंभ से उनकी अवस्थिति में हुए परिवर्तन का उल्लेख कीजिये।
• निष्कर्ष लिखिये।
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परिचय:
लौह तथा इस्पात उद्योग भारत के सबसे महत्त्वपूर्ण उद्योगों में से एक है। यह एक फीडर उद्योग है, जिसके उत्पाद अन्य उद्योगों में कच्चे माल के रूप में प्रयुक्त होते हैं। वर्ष 2018 में भारत, चीन के बाद इस्पात का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक था।
भारत मे लौह तथा इस्पात उद्योगों की अवस्थिति को प्रभावित करने वाले कारक:
- कच्चा माल: अधिकांश विशाल एकीकृत इस्पात संयंत्र कच्चे माल के स्रोतों के निकट स्थित हैं, क्योंकि इनमें भारी तथा वज़न में क्षरणीकृत कच्चे माल का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता है। उदाहरण के लिये, छोटा नागपुर क्षेत्र में लौह तथा इस्पात उद्योग का संघनन इसलिये अधिक है क्योंकि वहाँ लौह अयस्क प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। जमशेदपुर स्थित टिस्को संयंत्र को कोयला झरिया की खदानों से और लौह अयस्क, चूना पत्थर, डोलोमाइट तथा मैंगनीज़ की आपूर्ति ओडिशा व छत्तीसगढ़ से होती है।
- बाज़ार: चूँकि लौह तथा इस्पात से बने उत्पाद भारी और बड़े होते हैं इसलिये इनकी परिवहन लागत अधिक होती है। अतः बाज़ार से निकटता बेहद अहम है, विशेषकर छोटे इस्पात संयंत्रों के लिये तो यह बेहद ज़रूरी है, ताकि परिवहन को न्यूनतम किया जा सके। जमशेदपुर का टिस्को कोलकाता के निकट है, जो एक बड़ा बाज़ार उपलब्ध कराता है। विशाखापत्तनम का इस्पात संयंत्र तटीय क्षेत्र में स्थित है, जहाँ आयात-निर्यात की बेहतर सुविधाएँ उपलब्ध हैं।
- श्रम: सस्ते श्रम की उपलब्धता भी महत्त्वपूर्ण है। छोटा नागपुर क्षेत्र के अधिकांश संयंत्रों को इस क्षेत्र में पर्याप्त मात्रा में सस्ता श्रम उपलब्ध होता है।
- शीतलन के लिये पानी की उपलब्धता: उदाहरण के लिये- दामोदर नदी के किनारे बोकारो इस्पात संयंत्र, भद्रावती कर्नाटक में विशेश्वर्या इस्पात संयंत्र, भद्रा नदी के समीप भद्रावती (कर्नाटक) में विशेश्वर्या इस्पात संयंत्र, आदि।
- औद्योगिक नगरों से समीपता: छोटे इस्पात संयंत्रों, जो उत्पादक सामग्री के रूप में स्क्रैप धातुओं का उपयोग करते हैं, के लिये अपशिष्ट धातुओं के पुनर्चक्रण की आवश्यकता होती है। ऐसे संयंत्र ज़्यादातर औद्योगिक नगरों के समीप अवस्थित होते हैं,जैसे - महाराष्ट्र के इस्पात संयंत्र।
- सरकारी नीतियाँ: सरकार उद्योगों को पिछड़े क्षेत्रों में स्थापित करने के लिये प्रोत्साहित करती है। यह उद्योगों की अवस्थिति को प्रभावित करने के लिये सब्सिडी, कर में छूट और पूँजी प्रदान करती है। छत्तीसगढ़ में भिलाई इस्पात संयंत्र को क्षेत्र के पिछड़ेपन को दूर करने के लिये स्थापित किया गया था।
- विद्युत: विद्युत की उपलब्धता उद्योगों की अवस्थिति का एक अन्य निर्धारक है। टिस्को और बोकारो इस्पात संयंत्र को दामोदर घाटी निगम (DVC) से जलविद्युत की प्राप्ति होती है। भिलाई संयंत्र को कोरबा तापीय स्टेशन से ऊर्जा प्राप्त होती है।
- परिवहन: कच्चे माल की उपलब्धता वाले स्थानों, बाज़ारों और बंदरगाहों से संपर्क एक अन्य कारक है। टिस्को कोलकाता, मुंबई और चेन्नई के साथ रेलवे के माध्यम से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। दुर्गापुर संयंत्र के पास दुर्गापुर से हुगली और कोलकाता बंदरगाह के लिये नौगम्य नहर की सुविधा मौजूद है।
19वीं शताब्दी के प्रारंभ से लौह और इस्पात उद्योगों की अवस्थिति में परिवर्तन:
- वर्ष 1800 से पहले लौह और इस्पात उद्योग ऐसे स्थानों पर अवस्थित थे, जहाँ कच्चे माल, बिजली की आपूर्ति और जल आसानी से उपलब्ध थे।
- बाद में उद्योगों के लिये आदर्श स्थान कोयला क्षेत्रों, नहरों तथा रेलवे के निकट हो गया।
- वर्ष 1950 के बाद लौह और इस्पात उद्योगों को समुद्री बंदरगाहों के समीप समतल भूमि के बड़े क्षेत्रों पर स्थापित किया जाने लगा। ऐसा इसलिये हुआ क्योंकि इस समय तक इस्पात संयंत्रों का आकार बहुत बड़ा हो गया था और लौह अयस्क को विदेशों से आयात करना पड़ता था।
- भारत में लौह और इस्पात उद्योग कच्चे माल, सस्ते श्रम, परिवहन एवं बाज़ार का लाभ उठाते हुए विकसित हुआ है। भिलाई, दुर्गापुर, बर्नपुर, जमशेदपुर, राउरकेला, बोकारो जैसे सभी महत्त्वपूर्ण इस्पात उत्पादक केंद्र चार राज्यों- पश्चिम बंगाल, झारखंड, ओडिशा और छत्तीसगढ़ में अवस्थित हैं। कर्नाटक में भद्रावती और विजय नगर, आंध्र प्रदेश में विशाखापत्तनम, तमिलनाडु में सलेम अन्य महत्त्वपूर्ण इस्पात केंद्र हैं जो स्थानीय संसाधनों का उपयोग करते हैं।
निष्कर्ष
लौह तथा इस्पात उद्योग भारत में विनिर्माण क्षेत्र की रीढ़ की हड्डी जैसा है। तकनीक, डिमांड पैटर्न, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार स्थितियों तथा ऊर्जा स्रोतों में परिवर्तन होते रहने की वजह से लौह तथा इस्पात उद्योग की अवस्थिति में बदलाव होता रहता है। फिर भी औद्योगिक जड़त्व (Inertia) की वज़ह से वर्तमान स्थानों या अवस्थितियों का महत्त्व सदैव बना रहेगा।