नाथ-साहित्य में खड़ी बोली के प्रारंभिक स्वरूप पर टिप्पणी लिखिये। (150 शब्द)
15 Jun 2019 | रिवीज़न टेस्ट्स | हिंदी साहित्यउत्तर: आदिकालीन नाथ रचनाकारों नाथों ने अपने सम्प्रदाय की मान्यताओं को प्रचारित करने के लिये मध्यदेश के पश्चिमी भाग में 10वीं, 11वीं शताब्दी से लेकर 13वीं, 14वीं शताब्दी तक जनभाषा में जो रचनायें लिखीं उन्हें ही नाथ साहित्य कहा जाता है। घुमक्कड़ प्रवृत्ति के कारण इनकी भाषा पर तत्कालीन अन्य हिन्दी बोलियों का व्यापक असर दिखायी देता है जिनमें खड़ी बोली भी महत्त्वपूर्ण रूप से विद्यमान है।
नाथ साहित्य के कुछ उदाहरण ऐसे हैं जिनमें खड़ी बोली की कुछ प्रवृत्तियाँ तो दिखती हैं किन्तु यह भी झलक जाता है कि खड़ी बोली का प्रभाव सीमित मात्रा में ही है। उदाहरण के लिये चर्पटीनाथ का यह पद-
‘‘जाणि के अजाणि होय बात तू लें पछाणि।
चेले हो दूआ लाभ होइगा गुरु होइओ आणि।।’’
(तू जान के अनजान न बन, पहचान ले कि चेला बनने में लाभ ही लाभ है, गुरु होने में हानि है)।
उपरोक्त उदाहरण में न के स्थान पर ण का प्रयोग वह मूल प्रवृत्ति है जो खड़ी बोली में विशेष रूप से विद्यमान है। नाथ साहित्य में कुछ उदाहरण ऐसे भी हैं जो आश्चर्यजनक रूप से वर्तमानकालीन खड़ी बोली के निकट दिखायी पड़ते हैं। गोरखनाथ लिखते हैं-
‘‘नौ लख पातरि आगे नाचें पीछे सहज अखाड़ा
ऐसो मन लै जोगी खेलै तब अंतरि बसै भंडारा।।’’
उपरोक्त उदाहरण में आकारान्तता, एकारान्तता आदि की लगभग सारी प्रवृत्तियाँ स्पष्ट रूप से खड़ी बोली के समान परिलक्षित होती हैं। संख्यावाची विशेषण भी खड़ी बोली के समान हैं, यद्यपि लै, खेलै और बसै जैसे प्रयोग खड़ी बोली से कुछ अलग ब्रजभाषा की प्रकृति के निकट हैं।