जयशंकर प्रसाद और अज्ञेय की कहानी-कला का उद्घाटन करते हुए उनके बीच की समानता और असमानता पर प्रकाश डालिये।
26 Jul 2019 | रिवीज़न टेस्ट्स | हिंदी साहित्यप्रसाद व अज्ञेय दोनों ही बहुमुखी प्रतिभा के धनी साहित्यकार हैं। दोनों ही कवि पहले हैं, कहानीकार बाद में। इसलिये इनकी कहानियों में बिम्ब, प्रतीक व लय जैसे मूलत: काव्यात्मक तत्त्वों की सघन उपस्थिति देखी जा सकती है। संवेदना के स्तर पर भी दोनों मन के भीतर जाकर मानसिक यथार्थ की तहों को खोलते हुए अंतर्मन का सूक्ष्म विश्लेषण करते हैं।
प्रसाद प्रेमचंद के समकालीन हैं किंतु कहानी कला की दृष्टि से उनसे पर्याप्त भिन्न हैं। प्रसाद की कहानियों में रोमांटिक (स्वच्छन्दतावादी) दृष्टिकोण दिखता है। वे अपनी कहानियों में (नाटकों की तरह) अतीत की पृष्ठभूमि लेते हैं। राष्ट्रवाद तथा सांस्कृतिक आदर्शवाद उनकी संवेदना का केंद्र बिंदु है इसलिये प्रसाद की अनेक कहानियाँ देशप्रेम जैसे विषयों पर लिखी गई हैं। ये सारी विशेषताएँ प्रसाद की कहानी ‘पुरस्कार’ में देखी जा सकती हैं। जिसकी नायिका ‘मधूलिका’ प्रेम व देशप्रेम के गहरे अंतर्द्वन्द्व से गुजरकर अंतत: देशप्रेम के पक्ष में निर्णय लेती है, परंतु अपने लिये पुरस्कार के रूप में मृत्युदण्ड ही मांगती है।
अज्ञेय कई दृष्टियों से प्रसाद की परंपरा के ही रचनाकार हैं। इनकी कहानियों में सूक्ष्म विश्लेषणात्मक व वैचारिक परिपक्वता दिखती है। अज्ञेय की कहानियों पर प्रायड के मनोविश्लेषणवाद तथा सार्त्र के अस्तित्ववाद का प्रभाव भी है। अज्ञेय की कहानियों के पात्र प्राय: शहरीकरण के कारण अपनी जड़ों से कटे हुए मध्यमवर्गीय व्यक्ति हैं। शहरों का यंत्रीकरण इन पात्रों के भीतर एक ऊब व घुटन पैदा कर देता है। विडंबना यह है कि इस ऊब व घुटन का निवारण नहीं होता बल्कि यह जीवन का एक अंग बन जाती है। इसे अज्ञेय की कहानी रोज/गैंग्रीन में बेहद स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। कहानी का केन्द्रीय वाक्य ‘ऐसा तो रोज़ होता है’ इसी ऊब व नएपन के अभाव को प्रदर्शित करता है।
प्रसाद की कहानी के पात्रों में यह ऊब नहीं है। वहाँ द्वन्द्व तो है पर एक उत्साह भी है। यह संभवत: प्रसाद के आदर्शवाद के कारण संभव हो पाया है। इसी आदर्शवाद के प्रभाव में प्रसाद की कहानियों के नारी चरित्र (मधूलिका, चम्पा) अत्यंत सशक्त बन कर उभरे हैं। अज्ञेय ने अपने आप को आदर्श के उस धरातल से मुक्त कर लिया है जिससे पात्र यथार्थ के और करीब आ गए हैं। इसी कारण दोनों के बीच शिल्पगत साम्य में भी संवेदना का पर्याप्त वैषम्य स्पष्ट दिखता है। अज्ञेय ने प्रसाद की परंपरा में कुछ जोड़ा भी है और कुछ छोड़ा भी है। कुल मिलाकर इससे परंपरा कुछ अधिक समृद्ध ही हुई है।