भक्ति-आंदोलन के उद्भव के कारणों पर विचार करते हुए अपना मत प्रस्तुत कीजिये।
14 Jun 2019 | रिवीज़न टेस्ट्स | हिंदी साहित्यउत्तर: भक्ति आंदोलन का उद्भव हिन्दी साहित्येतिहास के सर्वाधिक विवादास्पद प्रसंगों में से एक है। विभिन्न इतिहासकारों और साहित्येतिहासकारों ने अपने-अपने इतिहासबोध के आधार पर इस प्रश्न को सुलझाने का प्रयास किया है।
भक्ति आंदोलन के उद्भव की प्रथम व्याख्या विदेशी प्रभाव के रूप में की गई है। ग्रियर्सन का मत है कि भक्ति आंदोलन ईसाई के प्रभाव के कारण अचानक एक बिजली की कौंध की तरह फैला। ताराचन्द और आबिद हुसैन भक्ति आन्दोलन को इस्लाम की देन बताते हैं।
किन्तु इन मतों को स्वीकार करना कठिन है। ग्रियर्सन के मत का खण्डन करते हुए आचार्य द्विवेदी ने स्पष्ट कहा कि, ‘‘जिस बात को ग्रियर्सन ने अचानक बिजली की चमक की तरह पैल जाना लिखा है, वह ऐसा नहीं है। उसके लिए सैकड़ों वर्षों से मेघखण्ड एकत्र हो रहे थे।’’ ताराचन्द के मत का खण्डन दिनकर ने अपनी पुस्तक ‘संस्कृति के चार अध्याय’ में यह कहकर किया कि पश्चिमी तट पर यह परम्परा विकसित होने से पहले ही भक्ति परम्परा दक्षिण में स्थापित हो चुकी थी।
भक्ति आंदोलन के उद्भव सम्बन्धी द्वितीय व्याख्या मार्क्सवादी व्याख्या है, जिसे मुख्यत: इरफान हबीब और के. दामोदरन ने प्रस्तावित किया है। मुक्तिबोध ने भी कुछ लेखों में यही मत प्रस्तुत किया है। हबीब के अनुसार दिल्ली सल्तनत की स्थापना के कारण जब बड़े पैमाने पर सड़क और भवन निर्माण आरंभ हुआ तो निम्न वर्णों की आर्थिक स्थिति में अचानक सुधार आया, जिससे उनके भीतर सामाजिक प्रतिष्ठा की भूख बढ़ी। इसी तनाव, बेचैनी और छटपटाहट ने निर्गुण संत काव्य को जन्म दिया, जो भक्ति आंदोलन का आरम्भिक बिन्दु है।
भक्ति आंदोलन के उद्भव की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण व्याख्या आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने प्रस्तुत की है। उनके मत से यह इस्लामी आक्रमण की प्रतिक्रिया है। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने वल्लभाचार्य के संकेत ‘देश म्लेच्छाक्रान्त है’ के आधार पर इस व्याख्या का समर्थन किया है।
भक्ति आंदोलन के उद्भव की अन्य महत्वपूर्ण व्याख्या आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने की, जिनका समर्थन नामवर सिंह ने किया है। द्विवेदी इस संदर्भ में भी उनका स्पष्ट मत है कि भक्ति आंदोलन भारतीय सांस्कृतिक परम्परा का स्वत: स्पूर्त विकास है। इस्लामी आक्रमण की व्याख्या का खण्डन करते हुए वे कहते हैं कि ‘‘अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी भक्ति साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है।’’ द्विवेदी जी का मत है कि भक्ति साहित्य जिजीविषा का साहित्य है, हताशा का नहीं।
निष्कर्ष: उपरोक्त सभी मतों का विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि विदेशी प्रभाव सम्बन्धी व्याख्या तो प्राय: अस्वीकार्य है, किन्तु शेष सभी व्याख्याएँ कहीं न कहीं आंशिक रूप से ठीक हैं। कोई भी जटिल सांस्कृतिक घटना वस्तुत: किसी एक कारण से जन्म नहीं लेती, उसकी व्याख्या बहुसूत्रीय पद्धति से ही हो सकती है। यह सच है कि सिद्धों-नाथों की शुष्क धार्मिक परम्परा में सरसता की आवश्यकता बनी हुई थी; यह भी सच है कि इस्लाम के आगमन के कारण उच्च वर्ण का हिन्दू समाज हताशा-निराशा के दौर से गुज़र रहा था। पुन: दिल्ली सल्तनत की स्थापना ने जो राजनीतिक स्थिरीकरण और अवर्णों की आर्थिक स्थिति में सुधार किया, वह भी इस आंदोलन का एक महत्वपूर्ण कारण है। इसलिये भक्ति आंदोलन अपने इतिहास, आर्थिक स्थितियों और ‘जनता की चित्तवृत्ति’ की पारस्परिक क्रिया-प्रतिक्रियाओं से उपजा हुआ आंदोलन है, न कि किसी एक कारण से।