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निम्नलिखित गद्यांशों की लगभग 150 शब्दों में ससंदर्भ व्याख्या कीजिये-

(क) जानता हूँ कि मैंने वहाँ रहकर कुछ नहीं लिखा। जो कुछ लिखा है वह वहाँ का ही संचय था। ‘कुमारसंभव’ की पृष्ठभूमि यह हिमालय है और तपस्विनी उमा तुम हो। ‘मेघदूत’ के यक्ष की पीड़ा मेरी पीड़ा है और विरह-विमर्दिता यक्षिणी तुम हो- यद्यपि मैंने स्वयं यहाँ होने और तुम्हें नगर में देखने की कल्पना की। ‘अभिज्ञान शाकुन्तल’ में शकुन्तला के रूप में तुम्हीं मेरे सामने थी। मैंने जब-जब लिखने का प्रयत्न किया तुम्हारे और अपने जीवन के इतिहास को फिर-फिर दोहराया। और जब उससे हटकर लिखना चाहा, तो रचना प्राणवान नहीं हुई।

(ख) संभवत: पहचानती नहीं हो और न पहचानना ही स्वाभाविक है क्योंकि मैं वह व्यक्ति नहीं हूँ जिसे तुम पहचानती रही हो। दूसरा व्यक्ति हूँ, और सच कहूँ तो वह व्यक्ति हूँ जिसे मैं स्वयं नहीं पहचानता हूँ।

19 Jul 2019 | रिवीज़न टेस्ट्स | हिंदी साहित्य

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

(क) प्रस्तुत पंक्तियाँ आधुनिक हिन्दी नाटक के शिखर पुरुष ‘मोहन राकेश’ द्वारा 1958 ई. में रचित उनके प्रथम नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ से ली गई हैं। यह नाटक हिन्दी नाटक के इतिहास में मील का पत्थर माना जाता है क्योंकि यहीं से आधुनिक भाव बोध की स्पष्ट अभिव्यक्ति नाट्य साहित्य में दिखने लगी।

ये पंक्तियाँ नाटक के प्रमुख चरित्र कालिदास ने नाटक की नायिका मल्लिका से कही हैं। तीसरे अंक में जब वह काश्मीर से लौटा है, तब मल्लिका को बता रहा है कि उसकी सारी रचनाएँ कैसे यहीं के जीवन से प्रभावित रही हैं।

कालिदास मल्लिका को बता रहा है कि उसकी रचनाशीलता का वास्तविक आधार ग्रामीण जीवन का अनुभव और मल्लिका के साथ बिताए हुए सुंदर क्षण ही हैं। वह कहता है कि उज्जयिनी और काश्मीर प्रवास के दौरान उसने कुछ भी मौलिक नहीं लिखा। इस काल में उसकी कई प्रसिद्ध रचनाएँ आईं जैसे- ‘कुमारसंभव’, ‘मेघदूत’ और ‘अभिज्ञान शांकुतलम्’, किन्तु ये सभी रचनाएँ उसके ग्राम्य जीवन के अनुभवों की ही प्रतीकात्मक अभिव्यक्तियाँ थीं। वह बताता है कि मैं जब कभी भी कुछ लिखता था तो हम दोनों के प्रेम की ही अभिव्यक्ति होती थी और रचना महान हो जाती थी। कभी-कभी मैंने कोशिश की कि कल्पना के सहारे कुछ और लिखूँ जो यहाँ की पुनरावृत्ति न हो बल्कि मौलिक हो, किन्तु ऐसा प्रयास करते ही रचना प्रभावशून्य हो गई। वह ईमानदारी से स्वीकार करता है कि कुमारसंभव की तपस्विनी ‘उमा’, मेघदूत की ‘यक्षिणी’ और अभिज्ञान शाकुन्तलम् की ‘शकुन्तला’ के चरित्रों में मूलत: तुम्हारा ही व्यक्तित्व है। इसी प्रकार मेघदूत के यक्ष व रघुवंश के अज की सम्पूर्ण पीड़ाएँ मेरी ही पीड़ाएँ हैं, जो मैंने तुमसे और इस स्नेहिल वातावरण से वंचित होकर भोगी हैं।

रचनात्मक सौंदर्य:

1. यहाँ ‘भोगे हुए यथार्थ’ की प्रामाणिकता को स्वीकारा गया है, न कि ‘सोचे हुए’ या ‘कल्पित’ यथार्थ को। नवलेखन के दौर में ‘भोगा हुआ यथार्थ’ साहित्यकारों की रचना-दृष्टि को व्यक्त करने वाला केंद्रीय शब्द था।

2. प्रतीकात्मक रूप में यहाँ सत्ता व सृजनशीलता का द्वन्द्व भी वर्णित है। सत्ता की सुख-सुविधाएँ रचनात्मकता को उभारती नहीं बल्कि खण्डित कर देती हैं।

3. भाषा में तत्समीपन होने के बावजूद बोधगम्यता बनी हुई है। इससे ऐतिहासिक वातावरण भी सुरक्षित रहा है और रचना की प्रभावशीलता भी।

4. संवाद अत्यधिक लम्बा है किन्तु उसका आंतरिक तनाव पाठक को आस्वादन प्रक्रिया से वंचित नहीं होने देता।

5. विराम चिन्हों के परिपक्व प्रयोग के कारण लिखित भाषा भी मौखिक भाषा के समान संप्रेषण कर पा रही है। यही क्षमता ‘आर्ट ऑफ रीडिंग’ कहलाती है।


(ख) प्रस्तुत गद्यांश मोहन राकेश के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ के तृतीय अंक से लिया गया है। उज्जियनी से वापस आने पर कालिदास को देखकर जड़वत हुई मल्लिका से कालिदास ये पंक्तियाँ कहता है।

कालिदास कहता है कि संभवत: वह उसे पहचान नहीं पा रही है और ऐसी स्थिति स्वाभाविक भी है क्योंकि वह चरित्रगत और मनोगत धरातल पर पूर्णत: परिवर्तित हो गया है और यह परिवर्तन ऐसा है कि उसका आत्म उससे विलुप्त हो गया है। वह स्वयं भी खुद को जानने-समझने की स्थिति में नहीं है।

अर्थगांभीर्य के साथ-साथ ये पंक्तियाँ रचनात्मक सौंदर्य से भी युक्त हैं।

इन पंक्तियों में आत्मनिर्वासन या अजनबीपन की समस्या अनुस्यूत है। जब व्यक्ति ऐसी स्थितियों में जीवन व्यतीत करता है जिनमें बने रहने के लिये उसे बार-बार अपने ‘स्व’ की हत्या करनी पड़ती है तो धीरे-धीरे उसके लिये अपने मूल व्यक्तित्त्व को पहचानना ही असंभव हो जाता है।

इस आत्मनिर्वासन बोध पर अस्तित्त्ववादी दर्शन का प्रभाव है।

व्यक्तित्त्व के अन्तर्विभाजन पर प्रसाद ने ‘कामायनी’ में और मुक्तिबोध ने ‘ब्रह्मराक्षस’ में अपने-अपने ढंग से बात की है।

नाटकीय प्रभाव, भाषागत प्रवाह एवं शब्द-चयन कौशल्य की दृष्टि से ये पंक्तियाँ काफी सधी हुई हैं।