‘सूर का भ्रमरगीत नागर-संस्कृति के बरक्श लोक-संस्कृति की प्रतिष्ठा करता है।’ इस कथन पर विचार कीजिये।
18 Jul 2019 | रिवीज़न टेस्ट्स | हिंदी साहित्यसूरदास मूलत: लोक-संस्कृति के कवि हैं। उनका यह रूप भ्रमरगीतसार में संकलित विभिन्न पदों में भी दिखायी देता है, जिनमें उद्धव और गोपियों के वाद-विवाद के माध्यम से वे नागर संस्कृति के विपक्ष एवं लोक-संस्कृति के पक्ष में खड़े दिखायी देते हैं। भ्रमरगीतसार में मथुरा से आए उद्धव नागर संस्कृति के प्रतीक हैं और गोपियाँ लोक-संस्कृति की।
भ्रमरगीतसार में लोक-संस्कृति की प्रतिष्ठा नगर जीवन के उपयोगितावादी संबंध-विधान के बरक्स ग्रामीण लोकजीवन के सहज एवं मानवीय संबंध-विधान की वरीयता में दिखाई देती है। इसलिये गोपियाँ बार-बार उद्धव द्वारा कृष्ण-प्रेम को निरर्थक बताए जाने के बावजूद उसे अपने लिये आत्यांतिक घोषित करती हैं-
हमारे हरि हारिल की लकरी।
मन बच क्रम नँदनंदन सों उर यह दृढ़ करि पकरी।।
भ्रमरगीत अपने देशकाल के अनुसार नगर-सभ्यता के प्रतीक मथुरा के खिलाफ लोक जीवन की सहजता को सामने ले आती है। नगर जीवन मनुष्य को ज्ञान के शुष्क बिन्दु पर ला खड़ा करता है। ऐसा ज्ञान जो दुख को भी तथ्य के रूप में देखता है, अनुभव को उपेक्षित करता है। गोपियाँ इस पर तीव्र व्यंग्यात्मक प्रहार करती हैं-
आयो घोष बड़ो व्यापारी।
लाद खेंप गुन ज्ञान जोग की ब्रज में आय उतारी।।
भ्रमरगीत में नगर को कुटिलता, स्वार्थ और छद्म को धारण करने वाले भूगोल के रूप में देखा गया है। वहाँ मथुरा एक ऐसी काजर की कोठरी है जो मनुष्य को मनुष्यत्व से दूर कर देती है-
‘वह मथुरा काजर की कोठरि जे आवहिं ते कारे।'
इस मथुरा के विरोध में पूरे भ्रमरगीत में प्रकृति का खुला हुआ स्वच्छन्द रूप है।
इस प्रकार भ्रमरगीत लोक-संस्कृति की प्रतिष्ठा करता है। ऐसा करते हुए वह कविता और मनुष्य को मुक्ति की सार्थकता की ओर ले जाने का प्रयत्न करता है।