‘भारत-दुर्दशा’ नवजागरण-चेतना से अनुप्राणित नाटक है।’ समीक्षा कीजिये।
17 Jul 2019 | रिवीज़न टेस्ट्स | हिंदी साहित्यभारतेन्दु हरिश्चन्द्र उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध के लेखक हैं और यह समय भारतीय समाज में सबसे गहरे संक्रमण का साक्षी रहा है। इस दौर में भारतीय समाज पहली बार अंग्रेेजों की संस्कृति से परिचित हुआ और उसके प्रति असमंजस, आकर्षण और विस्मय जैसे भाव को महसूस किया और यही पृष्ठभूमि भारतीय नवजागरण का आधार बनी।
नवजागरण चेतना के अंतर्गत आमतौर पर अतीत की महानता को उभारा जाता है। अतीत की महानता इन पंक्तियों में स्पष्टत: दिखाई देती है-
‘‘सबके पहले जेहि ईश्वर धन बल दीनो, / सबके पहले जेहि सभ्य विधाता कीनो।’’
अपनी दुर्दशा की चिंता नवजागरण के केंद्र में होती है। भारत दुर्दशा में भी यह चिंता केंद्र में है। ‘हाहा भारत दुर्दशा न देखी जाई’ का विलाप भी इसी चिंता का परिणाम है। नाटक के विभिन्न पात्रों की बैठक भी इसी ओर संकेत करती है।
नवजागरण चेतना का तीसरा पक्ष है अपनी दुर्दशा के कारणों की खोज करना तथा उन्हें दूर करने का प्रयास करना। नवजागरण की चेतना से युक्त रचनाकार अपनी दुर्दशा का ठीकरा दूसरों के सिर पर नहीं फोड़ता बल्कि कारणों की तलाश अपने समाज के भीतर करता है। भारतेंदु ने उन कारणों की पूरी पड़ताल की है जो दुर्दशा के लिये ज़िम्मेदार हैं। धर्म, आलस, मोह, अनावृष्टि, सूखा, मदिरापान, पैशन, महामारी कुछ ऐसे ही तत्व हैं। भारतेंदु ने भारत के पतन में धर्म की भूमिका की पहचान सफलतापूर्वक की है। उनके अनुसार धर्म की वजह से विभिन्न मत-मतान्तरों में हुआ विभाजन ही देश को ले डूबा। भारतेंदु ने धन के बहिर्गमन की भी पतन के एक कारण के रूप में पहचान की है-
‘‘अंग्रेज राज सुख साज सजे सब भारी। / पै धन विदेश चलो जात यहै अति ख्वारी।’’
नवजागरण चेतना का एक अनिवार्य पक्ष है कि हम दूसरी संस्कृति के अच्छे मूल्यों को आत्मसात करना चाहते हैं। अंग्रेजी संस्कृति के जो मूल्य भारत को आकर्षित कर रहे थे उनमें इहलोकवाद, वैज्ञानिक शिक्षा, समानता, स्वतंत्रता आदि प्रमुख थे। भारतेंदु ने भी ऐसे कुछ मूल्यों को सीखने की ललक दिखाई है-
‘‘देखो विद्या का सूर्य पश्चिम से उदय हुआ चला आता है।’’
स्पष्ट है कि भारत दुर्दशा का प्रतिपाद्य नवजागरण की चेतना का प्रसार करना है।