‘वर्तमान जीवन-स्थितियों में कबीर का रचनाकर्म अपनी प्रासंगिकता लगातार सिद्ध कर रहा है।’ इस कथन पर विचार कीजिये।
16 Jul 2019 | रिवीज़न टेस्ट्स | हिंदी साहित्यअपने युग के साथ भक्तिकालीन संत कवि कबीर का रचनात्मक संवाद आज की जीवन स्थितियों में भी प्रासंगिक बना हुआ है क्योंकि, इस संवाद में कबीर ने जिन मूल्यों एवं प्रश्नों को उठाया है वे वर्तमान सभ्यता एवं समाज के संकटों की भी पहचान करने में मदद देते हैं और आधुनिक मनुष्य को एक बेहतर विकल्प की तलाश के लिये प्रेरित करते हैं।
कबीर की स्पष्ट घोषणा है- ‘मैं कहता हूँ आँखन देखी’। रचना की यह अनुभव केंद्रीयता हमारे समय की सबसे मूल्यवान धरोहर है। आज जीवन के प्रत्येक स्तर पर सूचना की प्रधानता हो गई है। अनुभव का संकुचन संस्कृति के संकुचन का संकट है। कबीर की कविता वर्तमान के सूचनातंत्र की निस्सारता को उजागर करती है।
कबीर की कविता आज की दुनिया में मूल्य-चिन्ता की अनुपस्थिति को भी रेखांकित करती है। आज के बाह्य चकाचौंध से भरी एवं स्वकेन्द्रित समाज में मूल्य-चिन्ता का गहरा अभाव है। विवेक एवं दु:ख से ही मूल्य-चिन्ता उपजती है। कबीर में यह बोध उपस्थित है-
सुखिया सब संसार है खावै अरु सोवै।
दुखिया दास कबीर है जागै अरु रोवै।।
कबीर की कविता अपने समय के मूल संकट की पहचान करती है। विराट के लोप के कारण संबंध एवं आचरण के धरातल पर अंधता एवं कोलाहल दिखायी देता है। अत: कबीर विराट के महत्व को रेखांकित करते हैं। विराट से विच्छिन्नता के परिणामस्वरूप ही क्षुद्रताओं का उदय होता है। आज भी बाजार व्यवस्था की क्षुद्रताओं के कारण राष्ट्र, मानवता, सामाजिकता जैसी बड़ी चीजों का बोध खत्म होता जा रहा है। कबीर की कविता इन क्षुद्रताओं को पहचानने की शक्ति देती है।
कबीर की कविता, अन्तर्वस्तु एवं भाषा के धरातल पर मध्यकाल के आभिजात्यता के दुर्ग को तोड़ती है। वह संबंधों एवं भाषा के स्तर पर सहजता पर बल देती है। मध्यकाल में धर्म का कर्मकांडीय स्वरूप, बाह्मणवादी वर्ण-व्यवस्था एवं विलासिता आभिजात्यता के लक्षण थे। आज भी नए रूपों में ये समकालीन संकट बने हुए हैं। कबीर की कविता इनसे मुठभेड़ करती आज भी दिखायी देती है।
कबीर के काव्य की प्रासंगिकता भाषा के स्तर पर भी है। आज भाषा की अप्रमाणिकता मनुष्यता एवं सभ्यता के प्रति सबसे बड़ा संकट है। आज की समूची सभ्यता बाजार एवं राजनीति की चरित्रहीन भाषा में फँसी हुई है। ऐसे में कबीर की भाषिक चेतना अपना प्रतिमान रखती है-वह है भाषा का इकहरापन।
इस तरह सर्वधर्म समभाव, समदृष्टि, अपरिग्रह, कर्मयोग तथा दया आदि मानवीय गुण कबीर के मूल मंत्र हैं जो परम्परागत समाज ही नहीं, प्रबुद्ध और प्रगतिवादी समाज के लिये भी इतने सार्थक है कि उनके कभी भी अप्रासंगिक होने का प्रश्न नहीं उठता।