‘अवधी’ बोली का परिचय दीजिये।
11 Jul 2019 | रिवीज़न टेस्ट्स | हिंदी साहित्यउत्तर: अवधी अर्द्धमागधी अपभ्रंश से विकसित हुई पूर्वी उपभाषा वर्ग की सर्वाधिक प्रसिद्ध बोली है जिसका भौगोलिक क्षेत्र अयोध्या, पैजाबाद लखनऊ, सीतापुर, सुल्तानपुर, रायबरेली आदि ज़िलों तक पैला हुआ है। पालि-प्राकृत काल में अयोध्या क्षेत्र कोसल नाम से विख्यात था। यहीं की बोली ‘कोसली’ मध्यकाल में अवधी के विकास का आधार बनी।
यद्यपि अवधी का आरंभिक रूप रोडा कृत ‘राउलबेल’ तथा दामोदर पंडित कृत ‘उक्ति-व्यक्ति प्रकरण’ में मिलता है तथापि इसका वास्तविक विकास सूफी काव्यधारा तथा रामकाव्यधारा के माध्यम से हुआ। सूफीकाव्यधारा में जायसी तथा रामकाव्यधारा में तुलसी केंद्रीय कवि हैं जिन्होंने क्रमश: ठेठ अवधी की मिठास और तत्समी अवधी का औदात्य जनसाधारण के समक्ष प्रस्तुत किया।
अवधी की भाषायी विशेषताओं में निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण हैं-
1. ध्वनिगत विशेषताओें में ण झ न (कौण झ कौन, बाण झ बान), ड़ > र (साड़ी झ सारी), व झ ब (वचन - बचन), श, ष झ स (वर्षा- बरसा) इत्यादि प्रमुख हैं। उकारान्तता (राम कहतु चलु) इसकी साधारण प्रवृत्ति है तथा ऐ और औ इसमें सन्ध्यक्षरों के रूप में प्रयुक्त होते हैं जैसे- पैसा झ पइसा, और झ अउर।
2. व्याकरणिक विशेषताओं में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है कि इसमें संज्ञा के तीन रूप जैसे- लरिका, लरिकवा, लरिकउना मिलते हैं। ‘ए’, ‘न’ प्रत्ययों से बहुवचन बनाए जाते हैं, जैसे- रात झ रातें, लरिका झ लरिकन। ई, इनी, नी तथा इया प्रत्ययों से पुल्लिंग शब्द स्त्राीलिंग बनते हैं जैसे मोरनी, बुढ़िया आदि। क्रियाओं में वर्तमान के लिये त-रूप (बैठत, देखत), भूतकाल के लिये वा-रूप (आवा, जावा) तथा भविष्य काल के लिये ब-रूप (खाइब) प्रचलित हैं।
3. अवधी की शब्दावली प्रमुखत: संस्कृत के तद्भवीकरण तथा देशज प्रक्रिया से विकसित हुई है।
अवधी की प्रमुख विशेषता उसके लचीलेपन तथा संतुलन में है। यह ब्रज की तरह न तो अति कोमल है, न हरियाणी की तरह कठोर। लोकमंगल के तत्व इसकी आंतरिक संरचना में ही निहित हैं। यही कारण है कि भक्तिकाल के अधिकांश प्रबंध काव्य इसी भाषा में रचे गए हैं। निम्नलिखित पंक्तियों में लोकमंगल का यही भाव दिखता है-
‘‘परहित सरिस धरम नहिं भाई, परपीड़ा सम नहिं अधमाई।’’