पारसी रंगमंच की विशेषताओं पर प्रकाश डालिये।
10 Jul 2019 | रिवीज़न टेस्ट्स | हिंदी साहित्यबंगाल में 1870 के दशक में जिस समय व्यावसायिक थियेटर की नींव रखी गई लगभग उसी समय बंबई में कुछ पारसियों ने नाटक में रुचि लेना प्रारंभ किया। इन पारसियों ने हिन्दी नाटक कंपनियों का स्वामित्व लेना शुरू किया और हिन्दी के व्यावसायिक रंगमंच की शुरुआत की जिसे पारसी थियेटर के नाम से जाना गया। पारसी थियेटर व्यावसायिक थियेटर था इसलिये उन्होंने लोकरुचि के अनुकूल रंग पद्धतियों का विकास किया। इसके परिणामस्वरूप पारसी रंगमंच अंग्रेजी थियेटर की तुलना में भारतीय लोकनाट्य के अधिक निकट रहा।
जनसामान्य को प्रभावित करने के लिये शेरो-शायरी, गीत, नृत्य, अतिनाटकीयता, अतिभावुकता, चमत्कारी दृश्य विधान आदि पर जोर दिया गया। चमत्कारी दृश्य विधान पर अत्यधिक जोर था और हनुमान द्वारा संजीवनी बूटी का पर्वत लाने जैसे चमत्कारिक दृश्य प्रभाव उत्पन्न करने के लिये अत्यधिक उपयुक्त थे।
पारसी थियेटर ने रंगमंच को व्यवसाय के रूप में प्रतिष्ठित किया। अभिनेताओं को वेतन के आधार पर रखा गया। रंगकर्म की स्वतंत्र सत्ता स्थापित हुई। अभिनेताओं के साथ-साथ लेखक भी वेतन दे कर रखे गए। आगा हश्र कश्मीरी, राधेश्याम कथावाचक, नारायण प्रसाद बेताब के लिखे गए नाटकों का मंचन पारसी थियेटरों ने पूरे देश में किया। कुछ समय के लिये इसने साहित्य व रंगमंच की दूरी मिटा दी तथा हिन्दी नाटकों को अखिल भारतीय लोकप्रियता प्रदान की।
पारसी रंगमंच की अन्य विशेषता रंगमंच की प्रकृति के अनुकूल भाषा एवं अभिनय शैली पर बल देना थी। इससे नाटकों की भाषा के करीब आयी और इसमें देशज तथा विदेशज शब्दों का प्रयोग बढ़ा। द्विवेदी युग की विशुद्धतावादी प्रवृत्ति ने पारसी रंगमंच की आलोचना की। परिणामस्वरूप हिन्दी नाटक रंगमंच से दूर होने लगा।
यद्यपि शुद्धतावादियों ने पारसी रंगमंच की आलोचना की किंतु पारसी रंग शैली को जनमानस में इतनी लोकप्रियता प्राप्त थी कि उससे भारतेंदु हरिश्चंद्र एवं जयशंकर प्रसाद भी अप्रभावित नहीं रह सके। दोनों ने पारसी रंगमंच की प्रतिक्रिया में लिखा लेकिन दोनों ने उसकी रंग-शैली, अभिनय-शैली और गीत-संगीत के प्रभावों को जाने-अनजाने ग्रहण किया है।