निम्नलिखित पर लगभग 150 शब्दों में टिप्पणियाँ लिखिए:
(क) हरियाणवी बोली
(ख) सिद्ध-साहित्य में खड़ी बोली का प्रारंभिक स्वरूप
13 Jun 2019 | रिवीज़न टेस्ट्स | हिंदी साहित्य(क) हरियाणवी हिन्दी भाषा के ‘पश्चिमी हिन्दी’ उपभाषा वर्ग की बोली है। इस बोली का मूल सम्बन्ध हरियाणा राज्य से है। हरियाणवी का एक और नाम ‘बांगरू’ भी है, जो इसे जॉर्ज ग्रियर्सन ने दिया है। करनाल के आसपास का क्षेत्र बांगर कहलाता है। इसलिए ग्रियर्सन ने इसे बांगरू कहा। हरियाणवी बोली का क्षेत्र दिल्ली, करनाल, जीन्द, हिसार तथा पटियाला के कुछ क्षेत्रों तक विस्तृत है। हरियाणवी की भाषिक विशेषताएँ इस प्रकार हैं -
1. हरियाणवी में अ का उ, ए, ऐ तथा औ में परिवर्तन हो जाता है, जैसे-
कहाऊं झ कोहाऊं बहुत झ बोहत
जवाब झ जुवाब
2. इसमें ‘न’ के स्थान पर ‘ण’ बोला जाता है, जैसे- अपना झ अपणा, पानी झ पाणी। इसी प्रकार ड़ का ड हो जाता है, जैसे - बड़ा झ बडा।
3. कुछ शब्दों, विशेषकर क्रियाओं में, द्वित्वीकृत व्यंजनों का प्रयोग होता है, जैसे- चाल्लया, लाग्गे आदि।
4. इसमें ‘नै’ परसर्ग कर्त्ता-कर्म-सम्प्रदान तीनों में प्रयुक्त होता है। इसके अतिरिक्त करण और सम्प्रदान कारक के लिए ‘नइ’ तथा संबंध कारक के लिए ‘कइ’ एवं ‘के’ का प्रयोग होता है।
5. इसमें वर्तमान काल के लिए सूं, हूं, सैं, सै तथा भूतकाल के लिए सहायक क्रिया ‘था’ का प्रयोग किया जाता है।
साहित्य के धरातल पर इस बोली में शिष्ट साहित्य का प्राय: अभाव रहा है, किंतु लोक-साहित्य की सर्जना होती रही है।
(ख) सिद्ध साहित्य सिद्ध सम्प्रदाय से सम्बंधित साहित्य है जो बौद्ध परम्परा का हिन्दू परम्परा से प्रभावित एक आन्दोलन है। इस सम्प्रदाय के लोग वाममार्गी बौद्ध कहलाते हैं। तांत्रिक क्रियाओं तथा मन्त्रों द्वारा सिद्धि चाहने के कारण ये लोग सिद्ध कहलाये। सिद्धों की संख्या 84 मानी गयी है जिनमें सरहपा, शबरपा तथा लुइपा प्रमुख हैं।
सिद्धों ने मध्य देश के पूर्वी भाग में आठवीं, नौवीं शताब्दी से लेकर ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी तक दोहों तथा चर्यापदों के रूप में जनभाषा के माध्यम से साहित्य की रचना की। इस साहित्य में जो भाषा है वह अर्द्धमागधी अपभ्रंश के निकट है तथा आरंभिक खड़ी बोली की प्रवृत्तियों का स्पष्ट असर उस पर दिखायी देता है। उदाहरण के लिए सरहपा की रचनाओं के दो उदाहरण द्रष्टव्य हैं-
(अ) ‘‘घर ही बइसी दीवा जाली। कोणहिं बइसी घंडा चाली।’’
(घर में बैठे-बैठे दीपक जलाते और एक कोने में बैठकर घंटा बजाते हैं)।
(आ) ‘‘पंडिअ सअल सत्य बक्खाणअ। देहहिं बुद्ध बसन्त ण जाणअ।’’
(पंडित सभी शास्त्रों का बखान करते हैं पर देह में बसने वाले बुद्ध को नहीं जानते)।
उपरोक्त उदाहरणों में खड़ी बोली की कई प्रवृत्तियाँ दिखती हैं- बइसी, दीवा, जाली, चाली आदि शब्द ईकारान्त या आकारान्त हैं। इसी प्रकार ण जाणअ में न के स्थान पर ण का प्रयोग, कोणहिं तथा देहहिं में अनुनासिक का प्रयोग आदि ऐसे संकेत हैं जो प्राकृत और अपभ्रंश के साथ-साथ खड़ी बोली के आरंभिक स्वरूप का एहसास कराते हैं।