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09 Jul 2019
रिवीज़न टेस्ट्स
हिंदी साहित्य
निम्नलिखित पर लगभग 150 शब्दों में टिप्पणी लिखिये:
(क) कहानी का रंगमंच
(ख) ‘आधे-अधूरे’ की संवेदना
(क)
हिन्दी रंगमंच के विकास में एक महत्त्वपूर्ण घटना ‘कहानी के रंगमंच’ का उदय है। इसका कारण केवल यह नहीं है कि हिन्दी में समकालीन संवेदना के अच्छे नाटकों का अभाव है, बल्कि मूलत: यह कल्पनाशील निर्देशकों द्वारा नाटक के अलावा अन्य विधाओं से रंगमंच को जोड़कर उसके क्षितिज को विस्तृत करने की आकांक्षा का परिणाम है।
‘कहानी का रंगमंच’ की अवधारणा के उदय के पहले भी रंगमंच पर कहानियों के नाट्य-रूपान्तर कई बार खेले जा चुके थे। लेकिन इन कहानियों को मंचन हेतु तोड़ा और बदला गया था और एक प्रकार से अपनी प्रस्तुति में वह मूल रचना नहीं रह गई थी।
कहानियों को ज्यों-का-त्यों मंचित करने का आरंभ देवेन्द्रराज अंकुर ने किया। उन्होंने 1965 ई. में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के रंगमंडल हेतु निर्मल वर्मा की तीन कहानियों धूप का टुकड़ा, डेढ़ इंच ऊपर, वीक एन्ड का मंचन ‘प्रस्तुति तीन एकांत’ शीर्षक से करवाया। इसी प्रयोग को, कालान्तर में ‘कहानी का रंगमंच’ कहा गया। इस प्रयोग को आगे ले जाते हुए देवेन्द्रराज अंकुर तथा अन्य कई निर्देशकों ने भी हरिशंकर परसाई, मोहन राकेश, रमेश बक्षी, दूघनाथ सिंह आदि कई कहानीकारों की कहानियों का मंचन किया।
‘कहानी का रंगमंच’ प्रयोग की विशेषता यह है कि इसमें न तो एक या अधिक अभिनेताओं द्वारा कहानी का नाटकीय पाठ होता है और न ही कहानी को संवादों में बाँटकर अथवा चरित्रों के नाटकीय बिन्दुओं को हाव-भाव या स्तरों के उतार-चढ़ाव द्वारा प्रस्तुत किया जाता है।
एक तरह से यह कहानी-पाठ और नाट्यान्तर के बीच का रास्ता होता है, जिसमें कहानी के मूल रूप को सुरक्षित रखते हुए उसे प्रस्तुत किया जाता है।
सादगी भरी ‘रंग-परिकल्पना’ कहानी के रंगमंच की महत्त्वपूर्ण विशेषता है। किसी नाटक के प्रदर्शन की तरह कहानी के पात्रों की विकास-यात्रा स्पष्ट रेखाओं में नहीं मिलती। इसलिये कहानी-मंचन का अभिनेता कभी अपनी भूमिका निभाता है, तो कभी उससे अलग वाचक या सूत्रधार बनता है और कभी इन दोनों से अलग तीसरे पात्र को प्रस्तुत करता है।
(ख)
‘आधे-अधूरे’ मोहन राकेश के नाटकों में सर्वाधिक चर्चित नाटक है। यह हिन्दी नाटक की प्रचलित धारा से बहुत भिन्न नाटक है। वस्तुत: आधे-अधूरे हिन्दी नाटक को वास्तविक अर्थ में सम-सामयिक युग का प्रतिबिम्ब बनाने वाला नाटक है।
‘आधे-अधूरे’ मोहन राकेश के प्रथम दोनों नाटकों ‘आषाढ़ का एक दिन’ और ‘लहरों के राजहंस’ से भी पहले दोनों नाटकों में ऐतिहासिक आवरण में आधुनिक संवेदना को व्यक्त किया गया था। इस नाटक में नाटककार ने वर्तमान को अतीत के माध्यम से व्यक्त करने का मोह त्यागकर वर्तमान से सीधा साक्षात्कार किया है।
आधे-अधूरे के दोनों मुख्य पात्र पति महेन्द्रनाथ और पत्नी सावित्री अपने-अपने स्वभाव से विवश हैं और बहुत-सी परिस्थितियों ने भी उनका स्वभाव ऐसा बना दिया है कि दोनों ही एक-दूसरे को सह नहीं पाते बल्कि एक तरह से दोनों परस्पर नफरत करते हैं और एक साथ रहने के लिये विवश हैं।
सावित्री अपने अधूरेपन को दूर करने के लिये अलग-अलग आदमियों से टकराती है और सबको अधूरा पाती है। अंतत: दोनों पति-पत्नी एक-दूसरे के साथ ही जीने को विवश दिखाई देते हैं। उनके पारस्परिक संबंधों का प्रभाव उनके बच्चों पर भी पड़ता है।
कुल मिलाकर यह नाटक स्त्री-पुरुष संबंध और दांपत्य संबंध के खोखलेपन तथा पारिवारिक विघटन की जीवन-स्थितियों को दर्शाने वाला नाटक है। यह नाटक कई स्तरों पर संकेत देता है। यह एक साथ पारिवारिक विघटन, मानवीय सम्बंधों में दरार, दांपत्य संबंधों की कटुता, आपसी रिश्तों की रिक्तता, यौन विकृतियों, द्वन्द्व एवं नियति आदि को समेटता चलता है।