सूरदास के भ्रमरगीत में प्रकृति-वर्णन की विशिष्टताओं का उद्घाटन कीजिये।
06 Jul 2019 | रिवीज़न टेस्ट्स | हिंदी साहित्यहिंदी काव्य-परंपरा में प्रकृति के साथ जितना गहरा लगाव और तन्मयता का संबंध सूर-काव्य में दृष्टिगोचर होता है, उतना कहीं नहीं। हिन्दी के अधिकांश कवियों ने प्रकृति का उपयोग उद्दीपन विभाव के रूप में किया है। हिन्दी के अन्य कवियों की तरह सूरदास ने भी आमतौर पर प्रकृति को उद्दीपन विभाव की तरह इस्तेमाल किया है। प्रकृति मानो एक रंगमंच है जो नायक और नायिका की भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिये विशेष वातावरण तैयार करती है। उदाहरण के लिये, जो मधुबन संयोग के समय गोपियों को अति प्रिय और शीतल लगता था, वही कृष्ण के वियोग में दग्ध कर देने वाला प्रतीत होता है-
‘‘बिन गोपाल बैरिन भईं कुंजैं,
तब ये लता लगति अति सीतल, अब भईं विषम ज्वाल की पुंजैं।।’’
यह बात सही है कि सूर के प्रकृति वर्णन में वैविध्य कम है। चूँकि उनकी कविता में प्रकृति का भौगोलिक विस्तार कम है, इसलिये प्रकृति के सीमित रूप ही व्यक्त हुए हैं। आचार्य शुक्ल ने लिखा है- ‘‘बाह्य प्रकृति के संबंध में सूरदास जी की दृष्टि बहुत परिमित थी। एक तो ब्रज की गोचारण भूमि के बाहर उन्होंने पैर ही नहीं निकाला, दूसरे उस भूमि का भी पूर्ण चित्र उन्होंने कहीं नहीं खींचा।’’
दरअसल सूर के प्रकृति-वर्णन का सौंदर्य उसके भौगोलिक विस्तार में नहीं, मानव-प्रकृति संबंधों की गहराई में है। इसी गहराई के आधार पर प्रकृति कई ऐसे रूपों में आई है, जो सामान्यत: दुर्लभ हैं। पुष्टिमार्गी विश्वास के कारण सूर मानते हैं कि कृष्ण की लीला में सिर्प मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी और पेड़-पौधे भी भाग लेते हैं। कृष्ण के मथुरागमन पर गोकुल की गायें भी गहरे विरह में है-
‘‘उधो इतनी कहियो जाय।
अति कृसगात भई हैं तुम बिनु बहुत दुखारी गाय।’’
भ्रमरगीत के प्रकृति वर्णन में एक प्रमुख विशेषता ‘संवेदन आरोप’ की है जिसे पश्चिमी साहित्य में ‘पैथेटिक पैलेसी’ (Pathetic Fallacy) कहा गया है। इसका अर्थ है-अपनी मनोदशा के अनुसार प्रकृति को देखना और उससे अपनी मनोदशा के अनुकूल होने की उम्मीद करना। गोपियाँ प्रकृति से इतनी जुड़ गई हैं कि जो ऋतुएँ प्रकृति पर आती हैं, वे उन पर ही आने लगी हैं-
‘‘निसि दिन बरसत नैन हमारे।
सदा रहति पावस रितु हमपै जबतैं स्याम सिधारे।।’’
इसी प्रकार, वे अपनी मनोदशा के अनुकूल प्रकृति से भी विरहदग्ध होने की उम्मीद करती हैं और मधुबन को उलाहना देते हुए कहती हैं-
‘‘मधुबन तुम कत रहत हरे?
विरह वियोग स्याम सुन्दर के ठाढ़े क्यों न जरे?
सूर के यहाँ प्रकृति सिर्प ‘उद्दीपन-विभाव’ और ‘संवेदन-आरोप’ की भूमिकाओं तक सीमित नहीं है, वह मार्गदर्शक और प्रेरक की भूमिका में भी आती है। जायसी ने ‘गुरु सुआ जेहि पंथ दिखावा’ कहकर प्रकृति को गुरु बनाया है, किंतु वहाँ प्रकृति का गुरुत्व उतना स्पष्ट नहीं है, जितना सूर के यहाँ। सूर की गोपियाँ उद्धव को समझाती हैं कि जीवन जीने की कला प्रकृति से ही सीखी जा सकती है-
‘‘ऊधो कोकिल कूजत कानन।
तुम हमको उपदेस करत हो, भस्म लगावत आनन।।’’
स्पष्ट है कि सूर के यहाँ प्रकृति कई रूपों में आई है और हर रूप में बेहद मनोहर है। चूँकि सूर सगुण कृष्ण के भक्त हैं, जगत को कृष्ण की ‘लीला’ समझते हैं, प्रकृति को मिथ्या नहीं बल्कि ईश्वर की अभिव्यक्ति मानते हैं, गोचारण भूमि को कविता का भूगोल बनाते हैं; इसलिये स्वाभाविक है कि प्रकृति उनकी कविता में जितनी मुखर हुई है, किसी भी अन्य कवि की कविता में नहीं।