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05 Jul 2019
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हिंदी साहित्य
जायसी और कबीर के रहस्यवाद की तुलना कीजिये।
भक्तिकाल के महान कवियों जायसी और कबीर के काव्य की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता उनका रहस्यवाद है। किंतु, दोनों कवियों के रहस्यवाद की प्रकृति भिन्न है। आचार्य शुक्ल का मत है कि जहाँ कबीर का रहस्यवाद रूखा व शुष्क है, वहीं जायसी का रहस्यवाद सुंदर व रमणीयहै।
उनके अनुसार कबीर का रहस्यवाद अन्तर्मुखी है अर्थात् कबीर नाथ-पंथ और अद्वैतवाद के प्रभाव में आत्मा व परमात्मा या कुण्डलिनी व महाकुण्डलिनी के मिलन की बात तो करते हैं किन्तु जगत् के प्रत्येक हिस्से में ईश्वर का साक्षात्कार नहीं कर पाते। इसके विपरीत जायसी जिस दर्शन को लेकर चले हैं, वह उपनिषदों का सर्ववाद या सूफियों का सर्वेश्वरवाद है जिसके अनुसार यह जगत् मिथ्या या असत् नहीं बल्कि ईश्वर की ही सहज अभिव्यक्ति है। इसलिये जायसी ब्रह्माण्ड की एक-एक प्राकृतिक वस्तु में ईश्वरीय सौन्दर्य की छटा देखते हैं।
किन्तु आचार्य शुक्ल का यह मत एक सीमा तक ठीक होने के बावजूद निरापद नहीं है। वस्तुत: कबीर ने कई ऐसी कविताएँ लिखी हैं जिनमें सम्पूर्ण ब्रह्मण्ड में ईश्वर अभिव्यक्त होता हुआ प्रतीत होता है जैसे-
‘‘लाली मेरे लाल की, जित देखूँ तित लाल।’’
पुन: कबीर के काव्य का एक बड़ा हिस्सा भावनात्मक रहस्यवाद से प्रभावित है और उसमें आत्मा व परमात्मा से संबंधित विरह तथा मिलन के ऐसे प्रसंग आये हैं जो मार्मिकता व भावुकता में किसी भी रहस्यवादी काव्य से बेहतर हैं-
‘‘तलपै बिन बालम मोर जिया
दिन नहिं चैन रात नहिं निंदिया, तलफ-तलफ के भोर किया।’’
दूसरी ओर, यह कहना भी उचित नहीं है कि जायसी सर्वत्र बहिर्मुखी रहस्यवाद में विश्वास करते हैं। आचार्य शुक्ल ने स्वयं जायसी का एक प्रसंग उद्धृत किया है जिसमें जायसी नाथ कवियों के समान ईश्वर की कल्पना अपने भीतर करते हैं-
‘‘पिउ हिरदय महँ भेंट न होई,
को रे मिलाव कहौं केहि रोई।’’
स्पष्ट है कि कबीर व जायसी दोनों कवियों के यहाँ रहस्यवाद के वैविध्यपूर्ण चित्र मिलते हैं और दोनों के कुछ चित्र सौंदर्य की दृष्टि से अप्रतिम हैं। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि तुलनात्मक रूप से जायसी का रहस्यवाद अधिक सरस व मधुर है क्योंकि वह मूलत: भावनात्मक रहस्यवाद से जुड़े हैं और साधनात्मक रहस्यवाद उनमें बेहद सीमित है। इसके विपरीत, कबीर मूलत: साधनात्मक रहस्यवादी हैं और भावनात्मक रहस्यवाद का आंशिक प्रभाव ही उन पर दिखाई देता है।