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प्रारंभिक हिन्दी की व्याकरणिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिये।

12 Jun 2019 | रिवीज़न टेस्ट्स | हिंदी साहित्य

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

उत्तर: भाषिक विकास की प्रक्रिया में संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, अवहट्ट के क्रम में प्रारंभिक हिन्दी का विकास होता है जिसकी मूलभूत विशेषता वियोगात्मकता की प्रवृत्ति है। संस्कृत की संयोगात्मक प्रकृति से हिन्दी की वियोगात्मक प्रकृति तक का मार्ग तय करने के लिये वियोगात्मकता की प्रवृत्ति पालि-प्राकृत से ही आरंभ हो गई थी। यह प्रवृत्ति प्रारंभिक हिन्दी में बेहद स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। प्रारंभिक हिन्दी की व्याकरणिक संरचना की निम्नलिखित विशेषताएँ द्रष्टव्य हैं-

(क) संज्ञा व कारक व्यवस्था

(अ) संज्ञाओं के सविभक्तिक रूप मिलने लगभग समाप्त हो गए और परसर्गों का विकास काफी तेजी से हुआ। जैसे-

कर्ता - ने, नै

संप्रदान - तईं, लागि

कर्म - को, कों, कूँ

(आ) कुछ प्रयोग ऐसे हैं जिनमें विभक्तियों का प्रयोग हुआ है। ‘हि’ ऐसी विभक्ति है जिससे सभी कारकों का काम प्राय: चल जाता है, जैसे-

राजा गरबहि बोले नाहीं (करण)

चरनोदक ले सिरहि चढ़ावा (अधिकरण)

(ख) वचन व्यवस्था

पुरानी हिन्दी में बहुवचन बनाने के नियम स्पष्ट होने लगे। पुल्लिंग में बहुवचन के लिये ‘ए’ और ‘अन’ प्रत्यय जुड़ने लगे, जैसे-

बेटा झ बेटे बेटा झ बेटन

स्त्रीलिंग में एकवचन से बहुवचन बनाने के लिये कई प्रत्यय विकसित हुए, जैसे- अन, न्ह, ऐं, आँ इत्यादि। उदाहरण के लिये,

सखी झ सखियन अँखिया झ अँखियाँ

वीथी झ वीथिन्ह

(ग) लिंग संरचना

नपुंसक लिंग का अभाव पुरानी हिन्दी से पूर्व ही हो गया था। पुरानी हिन्दी में लिंग भेद के अनुसार शब्दों का स्वरूप निश्चित होने लगा। एक महत्वपूर्ण नियम यह है कि प्राय: स्त्रीलिंग शब्द ‘इकारांत’ होने लगे, जैसे -

आँखि, आगि, औरति, पापिनि, दुलहिनि

(घ) सर्वनाम

आधुनिक हिन्दी के सर्वनाम लगभग पूरी तरह से पुरानी हिन्दी में दिखाई देने लगते हैं। जैसे-

एकवचन     बहुवचन

उत्तम पुरुष - मैं, हौं, मारे, मेरो, मेरा हम, हमार, हमारो, हमारा

मध्यम पुरुष - तूँ, तुहि, तोर, तेरो, तेरा, तुम, तुम्ह, तुम्हारा, तिहारे

अन्य पुरुष - सो, सेइ ते, वे, वैं

(ङ) विशेषण

पुरानी हिन्दी के विशेषणों के संबंध में मूल विशेषता यह है कि संज्ञा के अनुसार विशेषणों के लिंग-वचन इत्यादि परिवर्तित होने लगे हैं। उदाहरण के लिये-

पीतवसन झ पीरो वसन उच्च झ ऊँच/ऊँचो/ऊँची/ऊँचे

(च) क्रिया रचना

पुरानी हिन्दी की क्रिया-रचना के संबंध में निम्नलिखित विशेषताएँ महत्वपूर्ण हैं -

(अ) संज्ञार्थ क्रियाओं या क्रियार्थ संज्ञाओं के अंत में ‘ण’ या ‘णु’ परसर्ग लगाने की प्रवृत्ति है, जैसे-चलण, पढणु, कहण।

(आ) तिङंत क्रिया रूपों के स्थान पर कृदंत क्रिया रूपों की प्रमुखता है, जैसे- चलिहै, चलहुँ, करिहै, करउँ।

(इ) पूर्वकालिक क्रियाओं के लिये प्राय: ‘इ’ परसर्ग का प्रयोग होता है, जैसे- चलि, पठि, उठि, करि।

(ई) संयुक्त क्रियाओं की प्रवृत्ति जो अवहट्ट से ही तेजी से विकसित होने लगी थी, और बढ़ती गई है, जैसे- ‘उड़ि चलइ’, ‘कहे जात हैं’, ‘देखौ चाहत’, ‘सुनि सकत’।