एक भाषा के रूप में अपभ्रंश के अध्ययन के प्रमुख स्रोतों का उल्लेख कीजिये तथा अपभ्रंश के प्रमुख भेदों पर प्रकाश डालिये।
28 Jun 2019 | रिवीज़न टेस्ट्स | हिंदी साहित्यअपभ्रंश की पहचान के लिये आधुनिक भाषा विज्ञान के पास कई स्रोत उपलब्ध हैं। इनमें से कुछ शिलालेखों के रूप में हैं और कुछ साहित्यिक रचनाओं के रूप में। आठवीं शताब्दी में सिद्ध साहित्य के विकास में पूर्वी प्राकृत मिश्रित अपभ्रंश मिलती है। बाद के समय में बौद्ध, रासो तथा विशेषकर जैन साहित्य की रचनाओं में अपभ्रंश के प्रयोग के उदाहरण दिखायी देते हैं। इनमें ‘‘महापुराण’’, ‘‘जसहर चरिउ’’, ‘‘णायकुमार चरिउ’’, ‘‘जिनदत्त कहा’’, ‘‘भविस्यत कहा’’, ‘‘पाहुड़ दोहा’’ आदि रचनाएँ प्रमुख हैं। कालिदास के नाटकों में भी निम्नवर्ग के पात्र इसी भाषा का प्रयोग करते हैं।
अपभ्रंश में रचित साहित्य की उपलब्धता कम है इसलिये इसके भेदों के विषय में मतभेद है। इस मतभेद का एक अन्य कारण यह विवाद भी है कि अपभ्रंश भाषा है या भाषिक अवस्था।
अपभ्रंश को भाषा मानते हुए मार्कण्डेय ने अपने ग्रंथ प्राकृत प्रकाश में इसके तीन भेद-नागर, उपनागर व ब्राचड़ माने हैं। यह अपभ्रंश पूरे उत्तर पश्चिमी भूखण्ड की भाषा थी जिसके अंतर्गत नागर अपभ्रंश गुजरात में, उपनागर अपभ्रंश राजस्थान में तथा ब्राचड अपभ्रंश सिन्ध प्रदेश में बोली जाती थी। डॉ तगारे ने भी अपभ्रंश के तीन भेद स्वीकारे हैं पर इन्हें पूर्वी अपभ्रंश, पश्चिमी अपभ्रंश तथा दक्षिणी अपभ्रंश नाम दिया है।
अपभ्रंश को भाषिक अवस्था मानते हुए डॉ धीरेन्द्र वर्मा ने माना है कि प्रत्येक प्राकृत की एक अपभ्रंश रही होगी। इस दृष्टि से ये हिन्दी देश में पाँच अपभ्रंशों की स्थिति स्वीकार करते हैं। शौरसेनी प्राकृत-शौर सेनी अपभ्रंश, महाराष्ट्री प्राकृत-महाराष्ट्री अपभ्रंश, मागधी प्राकृत-मागधी अपभ्रंश, पैशाची प्राकृत-पैशाची अपभ्रंश, अर्धमागधी प्राकृत-अर्धमागधी अपभ्रंश।
कुल मिलाकर अपभ्रंश के भेदों के विषय में विद्वानों में पर्याप्त विवाद है। संभावना के तौर पर इन भेदों को स्वीकार किया जा सकता है किन्तु प्रामाणिकता के लिये हमें कुछ और भाषा वैज्ञानिक प्रमाणों की प्रतीक्षा करनी होगी।