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  • 27 Jun 2019 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्य

    मध्यकाल में साहित्यिक भाषा के रूप में ब्रजभाषा के विकास पर प्रकाश डालिये।

    मध्यकाल के अंतर्गत भक्तिकाल तथा रीतिकाल दोनों आते हैं। काव्य भाषा के रूप में ब्रज भाषा इस काल में निरंतर परिपक्व हुई तथा क्षेत्रीय दृष्टि से अखिल भारतीय विस्तार प्राप्त करती गई। मध्यकाल से पहले खुसरो तथ चंदबरदाई के काव्य में ब्रजभाषा का प्रारंभिक स्वरूप दिखता है। सूर के काव्य में यह भाषा परिवर्धित हुई और रीतिकाल में इसने अपना पूर्ण वैभव प्राप्त किया।

    सूर की काव्यभाषा ब्रजभाषा का आरंभिक रूप होकर भी चरम रूप से सफल भाषा है। सूरदास ने ब्रजभाषा को उसी रूप में नहीं लिया जो सामान्य बोलचाल की भाषा में प्रचलित था। भाषा को व्यापकता प्रदान करने के उद्देश्य से उन्होंने ‘जेहि’, ‘तेहि’, जैसे अवधी प्रयोग; ‘गोड़’, ‘आपन’, ‘हमार’ जैसे पूर्वी प्रयोग तथा ‘महँगी’ (प्यारी) जैसे पंजाबी प्रयोग भी इसमें शामिल किए। सूर ने ब्रजभाषा की अंतर्निहित लयात्मकता को विकसित किया तथा चित्रात्मकता व अप्रस्तुत विधान के अनुकूल बनाया। इस कार्य में उन्हें अष्टछाप के अन्य कवियों का भी सहयोग मिला। मीरा की ब्रजभाषा में राजस्थानी का भी मिश्रण हुआ। इस काल में ब्रज भाषा का एक उदाहरण दृष्टव्य है:

    ‘‘निरखत अंक श्यामसुंदर के बार-बार लावति छाती।

    लोचन जल कागद मसि मिलिकै ह्वै गई श्याम की पाती।’’

    भक्तिकाल के बाद उत्तरमध्यकाल या रीतिकाल में ब्रजभाषा काव्यभाषा के एक विकल्प रूप में नहीं बल्कि एकमात्र काव्यभाषा के रूप में स्थापित हो गई। रीतिकाल में ब्रजभाषा के प्राय: दो रूप दिखाई देते हैं। पहला रूप प्राय: रीतिबद्ध व रीतिसिद्ध कवियों की भाषा में दिखता है जिसमें आलंकारिकता, सजगता और चमत्कारप्रियता की प्रवृत्तियाँ बहुत व्यापक रूप में परिलक्षित होती हैं। यह भाषा अति सजग किस्म की है। इसका सबसे बेहतर प्रयोग बिहारी के दोहों में मिलता है। भाषा की समास क्षमता और भावों की समाहार क्षमता इनकी विशेषता है जिसे इस उदाहरण में देखा जा सकता है-

    ‘‘कहत, नटत, रीझत, खिजत, मिलत, खिलत, लजियात।

    भरे भौन में करत हैं नैननु ही सों बात।’’

    इस काल की ब्रजभाषा का दूसरा रूप घनानंद जैसे रीतिमुक्त कवियों के काव्य में दिखता है। इनके यहाँ प्राय: सहज शिल्प है। इनकी भाषा सुनकर व्यक्ति चमत्कृत नहीं होता बल्कि संवेदना के गहरे स्तर पर पहुँचता है। इनके यहाँ अलंकार चमत्कृत नहीं करते बल्कि गहरा प्रभाव छोड़ते हैं। जैसे- ‘उजरिन बसी है हमारी अँखियान देखो’।

    इस काल में ब्रजभाषा ने यद्यपि चरम विकास प्राप्त किया किंतु यह अपनी कोमलकांत पदावली के साथ केवल भक्ति, वात्सल्य तथा शृंगार तक सीमित हो गई। यही कारण है कि लोकरूचि बदलने के साथ ही खड़ी बोली ने इसे अपदस्थ कर दिया।

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