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‘भ्रमरगीतसार’ निर्गुण मत पर सगुण मत की विजय का काव्य है।’ इस कथन पर विचार करते हुए अपना मत दीजिये।

22 Jun 2019 | रिवीज़न टेस्ट्स | हिंदी साहित्य

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

भ्रमरगीतसार मूल रूप से कृष्ण द्वारा गोपियों को संदेश भेजे जाने की कथा है। सूरदास ने कृष्ण द्वारा संदेश प्रेषण की कथा को एक नवीन आयाम दिया है। इस संदेश को उन्होंने निर्गुण ब्रह्म अपनाने की सलाह के रूप में बदल दिया है और गोपियों को सगुण भक्ति के दृढ़ स्तम्भों के रूप में चित्रित किया है। भ्रमरगीतसार की गोपियाँ उद्धव की शुष्क तथा जटिल ज्ञानमार्गी बातों से परेशान हैं। यहाँ उनका मूल उद्देश्य निर्गुण-सगुण का खंडन मंडन नहीं है वे तो केवल अपने प्रेम मार्ग पर बने रहना चाहती हैं। पर जब उद्धव किसी तरह नहीं मानते तो गोपियाँ उनसे निर्गुण के विषय में तरह-तरह के प्रश्न पूछना प्रारंभ करती हैं-

‘‘निर्गुन कौन देस को बासी?’’

‘‘रेख न रूप बरन जोके नहिं ताकों हमैं बतावत।

अपनी कहौ दरस वैसे को तुम कबहूँ हौ पावत?’’

यहाँ गोपियों की इच्छा उद्धव को पराजित करने की नहीं है बल्कि उनसे पीछा छुड़ाने की है ताकि वे उन्हें निर्गुण का पाठ न पढ़ायें। पर उद्धव नहीं मानते। तब गोपियां स्पष्ट करती हैं कि उनके लिये कृष्ण के अतिरिक्त किसी और से मन लगाना संभव नहीं है। एक ही मन था वह भी कृष्ण के साथ चला गया ऐसे में तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म की आराधना कौन करेगा। वे उद्धव को समझाती हैं कि जैसे-तैसे अगर वो अपने मन को समझा भी लेती हैं तो मन पुन: लौटकर कृष्ण पर ही आ जाता है।

गोपियां उद्धव की बातों का जवाब देने के लिये उसका सीधा-सीधा मजाक भी उड़ाती हैं-

‘‘ऊधौ भली करी तुम आए।

वै बातें कहि-कहि या दुख में ब्रज के लोग हंसाए।’’

गोपियाँ नहीं चाहती कि निर्गुण रूपी कांटे उनके प्रेममार्ग के राजपंथ को रोकें। इसलिये वे ऊधौ से प्रकृति का संदेश सुनने को कहती हैं-

‘‘ऊधौ कोकिल कूजत कानन।

तुम हमको उपदेश करत हो भस्म लगावत आनन।’’

अंतत: इस वाग्विदग्धतापूर्ण बहस के बाद गोपियाँ विजय प्राप्त करती हैं और उद्धव भी अपने निर्गुण मार्ग को छोड़कर सगुण के प्रति आकृष्ट होने लगते हैं वे कहते हैं-

‘‘अब अति पंगु भयो मन मेरो।

गयो तहाँ निर्गुण कहिवे को भयो सगुण को चेरो।।’’

इस रूप में सीमित अर्थों में इसे निर्गुण मत पर सगुण मत की विजय का काव्य माना जा सकता है। परंतु, इसे केवल निर्गुण पर सगुण की विजय का काव्य मानने में अनेक समस्याएँ हैं।

भ्रमरगीतसार मूल रूप से भक्ति काव्य है और इसके कई श्रेष्ठ पदों का सगुण-निर्गुण विवाद से कोई लेना देना नहीं केवल प्रेममार्गी रागानुगा भक्ति का प्रतिपादन ही उनका लक्ष्य है। इसके अतिरिक्त उद्धव व गोपियों के बीच की बहस तार्किक बहस नहीं है। सूर ने उद्धव को कुछ बोलने का अधिकार दिया ही नहीं है उनके यहाँ गोपियों की हर व्यंग्य उक्ति पर उद्धव को चुप रह जाना होता है। अत: भ्रमरगीतसार को भक्तिपरक वियोग शृंगार का काव्य मानना अधिक बेहतर विकल्प हो सकता है।