निम्नलिखित पद्यांशों की लगभग 150 शब्दों में ससंदर्भ व्याख्या कीजिये-
(क) काहे को रोकत मारग सूधो?
सुनहु मधुप निर्गुन-कंटक तें राजपंथ क्यो रुँधो?
कै तुम सिखै पठाए कुब्जा, कै कही स्यामघन जू धाैं।
बेद पुरान स्मृति सब ढूँढ़ौ, जुवतिन जोग कहूं धौं?
ताको कहा परेखो कीजै जानत छाछ न दूधो।
सूर मूर अक्रूर गए लै ब्याज निबेरत उधो।।
(ख) हँसि-हँसि कंत-न पाइये, जिनि पाया तिनि रोई।
जे हाँसे ही हरि मिलै, तौ नहीं दुहागानि कोई।।
21 Jun 2019 | रिवीज़न टेस्ट्स | हिंदी साहित्य(क)
प्रस्तुत पद हिन्दी की भक्तिकालीन कृष्णकाव्यधारा के प्रतिनिधि कवि सूरदास के पदों के संग्रह ‘भ्रमरगीत सार’ से लिया गया है जिसका संपादन आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा किया गया है। कृष्णप्रेम में लीन गोपियों को समझाने आए उद्धव का निर्गुण बह्म-साधना का उपदेश गोपियों को नहीं सुहाता और वे तरह-तरह से उद्धव के वचनों का खंडन करती हैं और उसे उलाहना देतीहैं।
इन पंक्तियों में गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव, इस सगुणोपासना के सीधे और सरल राजमार्ग को तुम अपने निर्गुण ब्रह्मोपासना के काँटों से क्यों रूँध रहे हो? लगता है तुम्हें या तो कुब्जा ने या श्रीकृष्ण ने सिखाकर यहाँ भेजा है। युवतियों के लिये योग-साधना का कहीं भी उल्लेख नहीं हुआ है। तुम वेद, पुराण, स्मृति आदि सब ग्रंथों में खोजकर देख लो। हम लोग उसका क्या विश्वास करें जो मटॅे के तुल्य निस्सार निर्गुण ब्रह्मोपासना और दूध के समान मंगलकारी सरल सगुणोपसना के महत्त्व को नहीं जानता? मूलधन-स्वरूप श्रीकृष्ण और बलराम को तो अक्रूर जी पहले ही ले गए, अब उद्धव ब्याज वसूल करने के लिये आए हैं अर्थात् इतने कष्ट के बाद वे इन नीरस बातों द्वारा हमें कष्ट देने के लिये चले आए हैं।
काव्य-सौंदर्य
1. इन पंक्तियों में सगुण भक्ति-पद्धति को प्रशस्त, खुली एवं सहज पद्धति बताया गया है।
2. गोपियों ने उद्धव के ज्ञान की अनुभवशून्यता की बात की है जिसमें संबंधों और उसके आकर्षण की अनुभूति नहीं है।
3. ‘मूलधन’ और ‘ब्याज’ जैसे प्रत्ययों के माध्यम से सूर ने तात्कालीन समाज में कृषकों की स्थिति की ओर भी संकेत किया है।
4. ज्ञान अपनी अंतिम परिणाति में कितना अमानवीय हो जाता है, इस ओर सूर संकेत करते हैं। उद्धव का ज्ञान क्रूर ज्ञान है। वह जीवन के निषेध पर टिका हुआ है।
5. सूर ने निर्गुण मार्ग के विरोध में परंपरा (वेद, पुरान, स्मृति) का भी सहारा लिया है।
6. सूर ने पशुचारण संस्कृति से छाछ, दूध जैसे उपमाएँ ली हैं।
7. यह पद वक्रोक्ति और उपालंभ का उत्तम निदर्शन, प्रस्तुत करता है।
8. कुल मिलाकर ये पंक्तियाँ जीवन में अनुभूतिपूर्ण संबंध-विधान के महत्त्व और आवश्यकता को प्रतिष्ठित करती हैं और इस रूप में अपनी प्रासंगिकता भी सिद्ध करती हैं।
(ख)
संदर्भ एवं प्रसंग: प्रस्तुत साखी श्यामसुंदर दास द्वारा संपादित कबीर के वाणियों के संग्रह ‘कबीर-ग्रंथावली’ के ‘विरह कौ अंग’ से लिया गया है। इस साखी में कबीर ने ब्रह्मोपलब्धि के कठिन मार्ग के संबंध में अपना मत प्रकट किया है।
भावार्थ: प्रस्तुत साखी में कबीर ने प्रेम-पंथ के स्वानुभूत प्रेम-सिद्धात को स्पष्ट किया है। हँसते-खेलते, मौज-मस्ती में कोई अपने प्रिय अर्थात् प्रभु को प्राप्त नहीं कर सकता। जिसने भी प्रभु-कृपा प्राप्त की है, वह विरह-वेदना की अनुभूति करते हुए ही अपने लक्ष्य तक पहुँचा है। यदि हँसते हुए ही प्रभु मिल जाए तो फिर संसार में कोई भी दुर्भाग्यशाली क्यों होगा।
विशेष:
1. कबीर वैष्णवी भक्तिमार्ग के प्रभाव में योगमार्ग से भक्तिमार्ग की ओर तो आते हैं परंतु वे इसे सरल और सहज नहीं मानते हैं बल्कि इसकी जगह वे मानते हैं कि बहुत साधना के बाद ब्रह्म-प्रेम की उपलब्धि होती है।
2. कबीर अपनी साखियों में लोकजीवन के प्रसंगों के माध्यम से अपनी बात कहते हैं। सुहागिनी का विपरीत शब्द दुहागिनि लोकजीवन का ठेठ शब्द है।
3. साखी में अनुप्रास अलंकार का कुशल प्रयोग हुआ है जो इसे गति प्रदान में सफल हुआ है।
4. कबीर ने विरह-चेतना की अनुभूति को इतनी गहराई एवं मार्मिकता से अंकित किया है कि सामान्य विरह-वर्णन से कबीर के विरह-वर्णन की विलक्षणता अपनी मौलिकता में साकार दिखाई देने लाती है।
5. कबीर की साखियों में रुदन या रोने की बात बार-बार आई है। रोना संवेदनशीलता का विशिष्ट लक्षण है।