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‘स्कंदगुप्त’ नाटक के आधार पर प्रसाद के नारी-चरित्रों के वैशिष्ट्य का निरूपण कीजिये। (250 शब्द)

20 Jun 2019 | रिवीज़न टेस्ट्स | हिंदी साहित्य

दृष्टिकोण / व्याख्या / उत्तर

उत्तर: प्रसाद नवजागरण के दौर के रचनाकार हैं और इस दौर में स्वाभाविक तौर पर संस्कृति के विविध पक्षों का पुनर्मूल्यांकन हुआ। यह वह दौर है जब नारी पहली बार घर से बाहर निकलकर स्वाधीनता संग्राम जैसे वृहत् दायित्वों को निभा रही थी और पुरुष उसके इस नव्य रूप को देखकर अचंभित था। प्रसाद इसी संक्रमण काल के लेखक हैं। इसलिये नारी को लेकर उनके दृष्टिकोण में एक ऊहापोह की स्थिति विद्यमान है। रोचक तथ्य यह है कि जहाँ प्रसाद के समर्थक उनकी नारी चेतना से अभिभूत नज़र आते हैं, वहीं दिनकर और मुक्तिबोध जैसे प्रगतिशील आलोचक प्रसाद की नारी दृष्टि को मध्यकालीन व रोमांसवादी करार देते हैं। ‘कामायनी’ जैसे महाकाव्यों और ‘चंद्रगुप्त’, ‘स्कंदगुप्त’ जैसे नाटकों में प्रसाद की नारी चेतना साफत़ौर पर झलकती है।

प्रसाद की मान्यता है कि नारी का वास्तविक रूप भावना, कोमलता, परोपकार तथा श्रद्धा जैसे गुणों से मिलकर बनता है। जिस नारी में ये सभी गुण मौजूद हों, उसकी महानता पर वे मुग्ध नज़र आते हैं। ‘कामायनी’ का प्रसिद्ध कथन ‘नारी तुम केवल श्रद्धा हो’ इसी वैचारिकता का प्रतिफलन है। ‘स्कंदगुप्त’ में भी ऐसे कई नारी चरित्र हैं जो इन गुणों का समग्र या आंशिक प्रतिनिधित्व करते हैं। उदाहरण के लिये,

1. देवसेना ऐसे सभी गुणों से युक्त है, मुख्यत: त्याग व राष्ट्र-प्रेम की भावना उसमें प्रखर हुई है। उदाहरण के लिये, उसका कथन है-‘‘मालव का महत्व तो रहेगा ही, उसकी उद्देश्य भी सफल होना चाहिए। आपको अकर्मण्य बनाने के लिये देवसेना जीवित न रहेगी।’’

2. देवकी- क्षमा का गुण।

3. कमला- देश के दायित्वों के लिये पुत्र-मोह का त्याग।

4. रामा- कृतज्ञता का गुण, किसी भी लालच के सामने न झुकने की ताकत।

‘स्कंदगुप्त’ के नारी चरित्रों में एक वर्ग बुरे चरित्रों का भी है। प्रसाद उन नारियों को अच्छा नहीं मानते जो नैतिक मूल्यों से समझौता करती हैं, स्वार्थ या लालच से भरकर अपनी प्रतिबद्धताओं को भूल जाती है। ‘स्कंदगुप्त’ की विजया और अनंत देवी ऐसी ही नारी चरित्र हैं।

प्रसाद के साहित्य में नारी चरित्रों की महानता चाहे दिखती हो, रचना के कथानक की दृष्टि से उनका स्वतंत्र महत्व कम है। ‘स्कंदगुप्त’ इस दृष्टि से एक बेहतर अपवाद है क्योंकि इसमें देवसेना का महत्व बहुत ज़्यादा है। देवसेना का अंतिम निर्णय किसी बाध्यता का नहीं बल्कि उसकी स्वतंत्र वैचारिकता का प्रमाण है।