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  • 11 Jun 2019 रिवीज़न टेस्ट्स हिंदी साहित्य

    निम्नलिखित पर लगभग 150 शब्दों में टिप्पणियाँ लिखिये:

    (क) अपभ्रंश की व्याकरणिक विशेषताएँ

    (ख) भाषा और बोली में अंतर

    (क) अपभ्रंश की व्याकरणिक विशेषताएँ

    अपभ्रंश की व्याकरणिक विशेषताओं का निरूपण संज्ञा, वचन, लिंग, विशेषण, काल, सर्वनाम तथा क्रिया आदि आधारों पर किया जा सकता है।

    (क) संज्ञा तथा कारक व्यवस्था

    सरलीकरण की प्रक्रिया अपभ्रंश के संज्ञा-रूपों में कई प्रकार से चलती रही। इस संबंध में तीन तरह के नये प्रयोग इस काल में दिखते हैं-

    (अ) निर्विभक्तिक प्रयोगों की प्रवृत्ति बढ़ी। इनके अन्तर्गत शब्दों को केवल प्रातिपदिक के रूप में व्यक्त किया जाता था या एक ही विभक्ति से कई कारकों का काम लिया जाता था। उदाहरण के तौर पर अपभ्रंश में हिं प्रत्यय से कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण कारकों का काम लिया जाता रहा।

    (आ) जो प्रयोग सविभक्तिक थे उनमें भी सरलीकरण हुआ। सारे प्रातिपदिक स्वरांत हो गये, जैसे-

    जगत् > जग महान् > महा

    प्रातिपदिक के अन्त में स्वर चाहे कोई भी हो, उसका रूपान्तरण ‘अकारान्त’ शब्दों की तरह होने लगा। इसके अतिरिक्त विभक्ति रूप जो संस्कृत में आठ थे, अपभ्रंश में तीन रह गये।

    (इ) अपभ्रंश में ही पहली बार परसर्गों का स्वतन्त्र विकास शुरू हुआ। जैसे- कर्म कारक के लिए ‘हिं’, सम्प्रदान के लिए ‘तेहि’, और संबंध के लिए ‘का’ और ‘कर’।

    (ख) वचन व्यवस्था

    संस्कृत के तीन वचनों के स्थान पर अपभ्रंश में दो वचन मिलते हैं। द्विवचन के सारे शब्द बहुवचन में शामिल हो गए।

    (ग) लिंग व्यवस्था

    संस्कृत के पुल्लिंग, स्त्रीलिंग तथा नपुंसक लिंग की जगह अपभ्रंश में पहले दो लिंग रह गए।

    (घ) विशेषण

    संज्ञा के लिंग और वचन के अनुसार विशेषणों का परिवर्तित होना अपभ्रंश में भी संस्कृत की तरह स्वीकार किया गया है। इस काल में विशेष प्रवृत्ति संख्यावाचक विशेषणों के विकास की है।

    (ङ) काल संरचना

    काल रचना के संबंध में अपभ्रंश में वर्तमान काल और भविष्य काल आमतौर पर संस्कृत की परम्परा में चलता है, जबकि भूतकाल हिन्दी की तरह कृदंतों के आधार पर चलता है।

    (च) सर्वनाम व्यवस्था

    सर्वनामों के रूपों में अपभ्रंश काल में जटिलता बनी हुई है किन्तु इनकी संख्या में काफी कमी दिखती है। सर्वनाम में कुछ विकास ऐसे हुए जो सीधे-सीधे वर्तमान हिन्दी तथा हिन्दी की कुछ बोलियों से मिलते-जुलते हैं जैसे- ‘तुम्हें’ सर्वनाम का विकास।

    (छ) क्रिया संरचना

    क्रिया में इस काल में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुए। क्रियाएँ कई आधारों पर विकसित होने लगी थीं। कुछ नये धातु रूप विकसित हुए जैसे - उट्ठ तथा बोल्ल।


    (ख) भाषा और बोली में अंतर

    भाषा और बोली में निम्नलिखित अंतर माने जा सकते हैं-

    • भाषा का भौगोलिक क्षेत्र प्राय: विस्तृत होता है जबकि बोली का सीमित।
    • भाषा भाषिक विकास की दृष्टि से बोली की तुलना में अधिक विकसित होती है। मानकता तथा व्यापकता प्राप्त करने के कारण भाषा का विकास तेजी से होने लगता है। इसके विपरीत बोली भाषिक विकास की दृष्टि से प्रारंभिक अवस्था में होती है जिसका मूल संबंध केवल जन प्रयोग से है।
    • भाषा का प्राय: एक निश्चित व्याकरण होता है जबकि बोली का व्याकरण निश्चित नहीं होता।
    • भाषा आमतौर पर अपने अंचल तथा उससे बाहर भी प्राय: निश्चित और मानक रूप में मिलती है जबकि बोली अपने अंचल के भीतर भी अलग-अलग वर्ग तथा क्षेत्र के अनुसार भिन्न-भिन्न रूपों में प्रयुक्त होती है।
    • भाषा की प्राय: एक निश्चित लिपि होती है और इस कारण उसका प्रयोग लिखित भाषा तथा मौखिक भाषा दोनों रूपों में होता है। इसके विपरीत बोली आमतौर पर मौखिक रूप में ही प्रयुक्त होती है।
    • भाषा और बोली में एक बड़ा अंतर यह भी है कि भाषा को शासकीय मान्यता प्राप्त होती है जबकि बोली को नहीं।
    • भाषा और बोली का अंतिम महत्वपूर्ण अंतर इनके प्रयोग क्षेत्र की व्यापकता से संबंधित है। भाषा समाज में शिक्षा, साहित्य, सरकारी कामकाज, कला-संस्कृति, पत्राचार, विज्ञान, राजनीति आदि का सक्षम माध्यम होती है जबकि बोली जीवन के साधारण पक्षों के अतिरिक्त विशेष पक्षों की अभिव्यक्ति में समृद्ध नहीं होती। शिक्षा, विज्ञान आदि का माध्यम वह नहीं बन सकती।
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